चाहत की धीमी आंच पर
इंसान भी सिजता है,
तथ्य है सत्य है
आजीवन न डिगता है,
चाहत कब झुलसाती है
नैपथ्य बस सिंकता है,
कब बोलोगी इसी का इन्तजार
मन रोज तुमको ही लिखता है।
धीरेन्द्र सिंह
चाहत की धीमी आंच पर
इंसान भी सिजता है,
तथ्य है सत्य है
आजीवन न डिगता है,
चाहत कब झुलसाती है
नैपथ्य बस सिंकता है,
कब बोलोगी इसी का इन्तजार
मन रोज तुमको ही लिखता है।
धीरेन्द्र सिंह
उन्मुक्त अभिव्यक्तियाँ
न तो समाज में
न साहित्य में,
नियंत्रण का दायरा
हर परिवेश में,
सभ्य और सुसंस्कृत
दिखने की चाह
घोंटती उन्मुक्तता
छवि आवेश में,
खंडित अभिव्यक्तियाँ
उन्मुक्तता के दरमियां
भावनाओं को कर रहीं
कुंठित,
मानव तन-मन अब
अंग-खंड आबंटित।
धीरेन्द्र सिंह
मर्यादित जीवन
बदलता है केंचुल
एक चमकीली आभा खातिर,
इंसानियत का प्यार
रिक्त अंजुल
उलीचता रहता है अख्तियार
बनकर शातिर,
दौड़ने का भ्रम लिए
यह रेंगती जिंदगी।
धीरेन्द्र सिंह
शाम अजगर की तरह
समेट रही परिवेश
निगल गई
कई हसरतें,
आवारगी बेखबर
रचाए चाह की
नई कसरतें।
धीरेन्द्र सिंह
02.07.2021
शाम 06.17
लखनऊ
शाम अपनी जुल्फों में
लिए पुष्प सुगंध
हवा को करती शीतल
क्या दुलारती है सबको,
शाम करती है छल
निस दिन अथक
तोड़ती है भावनात्मक बंधन
दे अन्य के भावों का चंदन,
त्याग देती है
पुराने हो चुके को
नए से कर निबंधन,
अब शाम
नहीं रही पहले जैसी
अक्सर बोले
वादे और जिंदगी की
ऐसी-तैसी,
शाम अकुलाई है
नए को पाई
पुराने को ठुकराई है,
नहीं बीतती अब शामें
बहकी-बहकी बातों में
प्रणय अचंभित लड़खड़ाए
स्वार्थ सिद्ध के नातों में।
धीरेन्द्र सिंह
02.07.2021
शाम 06.40
लखनोए।
तुम नयनों का प्रच्छा लन हो
तुम अधरों का संचालन हो
हृदय तरंगित रहे उमंगित
ऐसे सुरभित गति चालन हो
संवाद तुम्हीं उन्माद तुम्हीं
मनोभावों की प्रतिपालन हो
जिज्ञासा तुम्हीं प्रत्याशा तुम्हीं
रचनाओं की नित पालन हो
कैसे कह देती वह चाह नहीं
हर आह की तुम ही लालन हो
हर रंग तुम्हीं कोमल ढंग तुम्हीं
नव रतिबंध लिए मेरी मालन हो।
धीरेन्द्र सिंह
वह व्हाट्सएप्प पर
सक्रिय रहती है
प्रायः द्विअर्थी बातें
लिखती हैं
और चले आते हैं
उसके चयनित पुरुष
टिप्पणियों में
रुग्ण यौन वर्जनाओं के
लिए शब्द
जिसपर वह अवश्य चिपकाती है
अपनी मुस्कराहट
एक रूमानी आहट,
कोई कुछ भी बोल जाए
उसे फर्क नहीं पड़ता
जिसे चाहती है वही
उसके व्हाट्सएप्प में रहता,
पुस्तकें हैं उसे मिलती
चयनित पुरुषों के
प्रेम और यौन उन्माद की
कथाओं की पुस्तकें,
सभी पुरुष होते हैं
तथाकथित साहित्यिक
छपाए पुस्तकें
अपने पैसों से
खूब होती है गुटरगूं
इन नकलची लेखक जैसों में,
हिंदी लेखन की मौलिकता
कुचल रहीं यह नगरवधुएं
यदि मौका मिले तो पढ़िए
कैसे हैं पुरुष इन्हें छुए।
धीरेन्द्र सिंह