शनिवार, 12 जून 2021

गीत लिखे

गीत लिखो कोई भाव सरणी बहे
मन की अदाओं को वैतरणी मिले
यह क्या कि तर्क से जिंदगी कस रहे
धड़कनों से राग कोई वरणी मिले

अतुकांत लिखने में फिसलने का डर
तर्कों से इंसानियत के पिघलने का डर
गीत एक तरन्नुम हम_तुम का सिलसिले
नाजुक खयालों में फूलों के नव काफिले

एक प्रश्न करती है फिर प्रश्न नए भरती
अतुकांत रचनाएं भी गीतों से संवरती
विवाद नहीं मनोभावों में अंदाज खिलमिले
गीत अब मिलते कहां अतुकान्त में गिले।

धीरेन्द्र सिंह

सोमवार, 4 जनवरी 2021

उसकी आवारगी

उसकी आवारगी भी कितनी बेमिसाल है
 देख जिसे तितलियां भी हुई बेहाल हैं
 उसकी ज़िद भी उसकी ज़िन्दगी सी लगे 
घेरे परिवेश उलझे आसमां की तलाश है;

 उन्मुक्त करती है टिप्पणियां चुने लोगों पर 
बात पुख्ता हो इमोजी की भी ताल है
 सामान्य लेखन पर भी दे इतराते शब्द खूब 
साहित्यिक गुटबंदी में पहचान, मलाल है;

 एक से प्यार का नाटक लगे उपयोगी जब
 दूजा लगे आकर्षक तो बढ़ता उसका जाल है 
एक पर तोहमत लगाकर गुर्राए दे चेतावनी
 जिस तरह नए को बचाए उसका कमाल है;

 गिर रहा स्तर ऐसे साहित्य और भाषा का भी 
प्यार के झूले पर समूहों का मचा जंजाल है 
शब्द से ज्यादा भौतिक रूप पर केंद्रित लेखन
 उसकी चतुराई भी लेखन का इश्किया गुलाल है। 

धीरेन्द्र सिंह

मंगलवार, 5 मई 2020

कविता और शराब

कविता भी शराब होती है
रंग लिए
ढंग लिए
उमंग की तरंग लिए
व्यक्ति में घुल खोती है
कविता भी शराब होती है

इसमें कवि "फ्लेवर" है
लेखन का "टेक्सचर" है
कड़वाहट और मिठास है
मनभावों को खुद में डुबोती है
कविता भी शराब होती है

आरम्भ की पंक्तियों में "वाह"
मध्य भाग में मन चाहे "छाहँ"
अंत में लगे पकड़े कोई "बाहं"
इस तरह अंकुर उन्माद बोती है
कविता भी शराब होती है

जुड़े यदि गायन बन जाती "बार"
नृत्य यदि जुड़े तो महफ़िल खुमार
शब्द भावों से हृदय में उठे झंकार
कविता-शराब में दांत कटी रोटी है
कविता भी शराब होती है।

धीरेन्द्र सिंह

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सोमवार, 27 अप्रैल 2020

संतों की हत्या

संतों की हत्या कर रही मुझसे बात
निहत्थों की घेर हत्या है कोई घात
एक हवा कहीं बिगड़ी बेखौफ हो
चुप रहना जीवंतता की न सौगात

निहत्थों की हत्या सोते का गला रेत
दोनों में मरे संत क्या कर रही है रात
कई पड़ रही हैं सलवटें बोल इंसानियत
क्या लुप्त की कगार पर आपसी नात

कुछ इसके विरोध में कुछ हैं बस मौन
कौन कहे देश में कब, कहां भीतरघात
साम्प्रदायिक नहीं जज्बाती ना लेखन
एक नागरिक भी न करे क्या ऐसी बात।

धीरेन्द्र सिंह

गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

शब्दों को चाहिए

व्यक्ति में यदि भाव हैं तो लगे सुघड़
महज पत्थर पर तो चलते हैं हथौड़े
अनुभूति का अंदाज़ हो तो लगे जांबाज
वरना तो सभी जी लेते अक्सर थोड़े-थोड़े

शब्दों को चाहिए सुनार की सी चोट
भावों का आभूषण कला को हो निचोड़े
अभिव्यक्ति हृदय को कर दे आंदोलित
वरना तो सभी लिखते हैं एहसास तोड़े-मोड़े।

धीरेन्द्र सिंह

तुमको जी लूँ

तुमको जी लूँ तो जन्नत में पाऊं
कहो आत्मने कब डुबकी लगाऊं
नहीं तन, मन तक है मेरी मंजिल
साहिल से कह दो तो बढ़ मैं पाऊं

बदन का जतन सुख की काया बने
मन का वतन पाकर ध्वज फहराउं
कह दो बदन को क्यों मुझसे रंजिश
नयन जब तक न चाहें, मन कैसे पाउँ।

धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

सुबह

सुबह
जब मैं बालकनी में बैठ
पहाड़ों को देखता हूँ
हरे भरे पेड़ों से आती
कोयल की कूक
मन में उठती हुक,
उठती हैं मन से
भावों की अनेक कलियां
कल्पनाओं के तागे में
लड़ियाँ बना उड़ जाती हैं
चाहत के डैनों संग
और डूब जाती हैं जाकर
प्रियतमा के हृदयतल में
अकुलाती, अधीर, अंगड़ाई संग
लौट आती है मुझ तक
बन पुष्प
रंग, गंध संग
और बालकनी भर जाती है
सूर्य रश्मियों से।

धीरेन्द्र सिंह