सोमवार, 27 अप्रैल 2020

संतों की हत्या

संतों की हत्या कर रही मुझसे बात
निहत्थों की घेर हत्या है कोई घात
एक हवा कहीं बिगड़ी बेखौफ हो
चुप रहना जीवंतता की न सौगात

निहत्थों की हत्या सोते का गला रेत
दोनों में मरे संत क्या कर रही है रात
कई पड़ रही हैं सलवटें बोल इंसानियत
क्या लुप्त की कगार पर आपसी नात

कुछ इसके विरोध में कुछ हैं बस मौन
कौन कहे देश में कब, कहां भीतरघात
साम्प्रदायिक नहीं जज्बाती ना लेखन
एक नागरिक भी न करे क्या ऐसी बात।

धीरेन्द्र सिंह

गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

शब्दों को चाहिए

व्यक्ति में यदि भाव हैं तो लगे सुघड़
महज पत्थर पर तो चलते हैं हथौड़े
अनुभूति का अंदाज़ हो तो लगे जांबाज
वरना तो सभी जी लेते अक्सर थोड़े-थोड़े

शब्दों को चाहिए सुनार की सी चोट
भावों का आभूषण कला को हो निचोड़े
अभिव्यक्ति हृदय को कर दे आंदोलित
वरना तो सभी लिखते हैं एहसास तोड़े-मोड़े।

धीरेन्द्र सिंह

तुमको जी लूँ

तुमको जी लूँ तो जन्नत में पाऊं
कहो आत्मने कब डुबकी लगाऊं
नहीं तन, मन तक है मेरी मंजिल
साहिल से कह दो तो बढ़ मैं पाऊं

बदन का जतन सुख की काया बने
मन का वतन पाकर ध्वज फहराउं
कह दो बदन को क्यों मुझसे रंजिश
नयन जब तक न चाहें, मन कैसे पाउँ।

धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

सुबह

सुबह
जब मैं बालकनी में बैठ
पहाड़ों को देखता हूँ
हरे भरे पेड़ों से आती
कोयल की कूक
मन में उठती हुक,
उठती हैं मन से
भावों की अनेक कलियां
कल्पनाओं के तागे में
लड़ियाँ बना उड़ जाती हैं
चाहत के डैनों संग
और डूब जाती हैं जाकर
प्रियतमा के हृदयतल में
अकुलाती, अधीर, अंगड़ाई संग
लौट आती है मुझ तक
बन पुष्प
रंग, गंध संग
और बालकनी भर जाती है
सूर्य रश्मियों से।

धीरेन्द्र सिंह

गुरुवार, 12 सितंबर 2019

सुघड़ लगती हो

सुघड़ लगती हो
साड़ी जब तुमसे
लिपट जाती है
चूड़ियां जब रह-रह
खनखनाती है
पावों के महावर
जब गुनगुनाते हैं
हम और बहुत और
 पास हो जाते हैं,

माथे की बिंदिया
सूरज की ललक
नयनों में कजरा की
श्यामल धमक
अधरों पर थिरके
अनकही बातें
कानों में बाली
झूम-झूम नाचे
भाव उन्मादी थरथराते हैं
न जाने क्यों घबड़ाते हैं

बाह्य अभिव्यक्ति
कितनी आसक्ति
व्यक्ति की जीवंतता
व्यक्ति ही व्यक्ति
आंतरिक आकर्षण
तर्करहित युक्ति
इससे प्रबल
कहां कोई शक्ति
जीवन सुरभित मिल बनाते हैं
ज़िन्दगी की धुंध को बहलाते हैं।

धीरेन्द्र सिंह
नारी सिर्फ श्रृंगार
मनभावन अभिसार
या कुछ और भी
करता है निर्धारित
देखने का तौर भी,

देह की दालान
या असीम आसमान
वासना उन्माद की
यह एक संस्कार
या तासीर आधुनिक दौर की,

यही तो समझाई हो
कुछ ना छुपाई हो
नारीत्व दमदार की
प्रीत संगिनी गुरु वंदनी
जीवन के हर टंकार की,

प्यार भी और शक्ति भी
उन्नयन की आसक्ति दी
कर्मयुद्ध की संगिनी भी
अस्त्र भी हो शस्त्र भी बनो
कवच हर एक प्रहार की।

धीरेन्द्र सिंह


बुधवार, 11 सितंबर 2019

मन की तूलिका

मन की तूलिका से
भावों में रंग
हो जाए विहंग
तुमको सजाकर
दुनिया को हटाकर,
कब स्वीकारा है तुमने
दुनिया के खपच्चे की बाड़ को
अपने अंदाज से
अपने जज्बात से
दुनिया की मनगढ़ंत आड़ से,

सौम्य, शांत मैदानी नदी सी
तुम गुजरो कभी पहाड़ों से
तो कभी मैदानी भाग से
हर समय दीप्त
तुम्हारी आग से,
यह आग
जाड़े की रात की आग
ऊपर से शांत
भीतर प्रज्ज्वलित भाग
एक संतुलन को बनाए हुए
खुद को अलमस्त जिलाए हुए,

तुम्हारी यह जीवंतता
कैसे देती है पीस
दुनिया के अवसादों को
अनमनी, अस्वीकार्य बातों को
इतनी सहजता से
कितनी सुगमता से
कि लगे
तुम समाधिस्त साधिका हो
खुद में खुद की आराधिका हो,

घर-परिवार के स्वाभाविक झंझावात
विद्वेष या नाराजगी
क्रोधित होते हुए भी
नहीं देखा इतने वर्षों में,
कहां संभव है
आज के युग में
यह संतुलन, यह सहजता
जग इसे पढ़कर भी
कपोल कल्पना है समझता
पर
जगत की नायाब अनुभूति
मेरे अधिकार में है
कथ्य की सार्थकता
उन्मुक्त जयकार में है,

सुनो
फिर एक मीठी झिड़की लगाओगी
दुनियादारी मुझे सिखाओगी
और कहोगी
निजी बातों को ही
क्यों लिखता हूँ
प्रिए
निरंतर तुम में
जो बहता हूँ।

धीरेन्द्र सिंह