सोमवार, 17 मार्च 2025

सखी

 वैचारिक बूंदें स्वाति नक्षत्र समान

भाव मिलन से निर्मित हो संज्ञान

अभिव्यक्तियां सृष्टि सदृश अनुगामी

कहना-सुनना भी व्यक्तिपरक विधान


इस समूह में नित सब, कुछ कहते

सबका, सब ना सुनते, देकर ध्यान

यहीं विचार प्रमुख होकर है कहता

शब्द से पहले है विचारों का रुझान


एक विषय पर एक भाव क्या लिखना

कविता है युवती चाहे भांति-भांति गहना

सजी-धजी नारी करती है ध्यानाकर्षण

अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करे निर्मित अंगना


कविता बहुत लजीली-सजीली अनुरागी

कविता आक्रामक जब हो कठिन सहना

तुमसी जैसी ही लगती है क्यों कविता

तुमको ही लिख दूं सखी फिर क्या कहना।


धीरेन्द्र सिंह

17.03.2025

22.22



रविवार, 16 मार्च 2025

हो ली

 जो लोग डर नहीं खेलते हैं होली

अभद्रता देख कहें सभ्य हो ली


आजकल आ रहे हैं कई रील

होली उत्सव या शारीरिक कील

रंगों में फसाद और गीला-गीली

अभद्रता देख कहें सभ्य हो ली


सबके मोबाइल में यही भरमार

यह कैसा है मोबाइली अत्याचार

न शालीनता न ही नटखट बोली

अभद्रता देख कहें सभ्य हो ली


ऐसे रील त्यौहार के हैं दुश्मन

प्रेम गायब कुंठित भाव प्रदर्शन

रील भ्रमित करे दूषित हमजोली

अभद्रता देख कहें सभ्य हो ली।


धीरेन्द्र सिंह

16.03.2025

12.26

शनिवार, 15 मार्च 2025

बाबा रे

 बाबा रे क्या गज़ब करते हो

बातों को कैसे लिख देते हो


अहा !

वाह !

मैं तो न कहती, बोल गईं यूं वह

मन का क्या वह जाता वहीं बह


ओहो !

रहने दो !

हा हा हा कर फिर खिलखिलाई

इसे कहते हैं जलाना दियासलाई


हम्म !

हाँ सो तो है !

बात करने से पहले सोचना होगा

पता नहीं क्या लिखो देखना होगा


अरे, गई !

बात रह गई !

आती है बतियाती और फुर्र हो जाती

ऐसे आकर रचना मुझमें है भर जाती।


धीरेन्द्र सिंह

15.03.2025

20.16



शुक्रवार, 14 मार्च 2025

होली के दिन

 होली के दिन

प्रातः 7.15 पर

उनको भेज दिया

होली संदेसा

कुल छह परिच्छेद में

निखरा-उभरा-बिखरा

मनोभाव उन्मुक्त,


इस संदेसे में

मात्र शुभकामनाएं ही नहीं

बल्कि

मनोकामनाएं भी थीं

और था हुडदंगी विचार,

टाइप पूर्ण कर जब पढ़ा

तो हुआ आश्चर्य खुद पर

इतना सब कैसे और

क्यों लिख दिया ?

चाहकर भी

नहीं कर सका डिलीट,


दोपहरी गुजर गई

पर न आया उनका उत्तर

बार-बार देखता पर

उनका संदेसा न पाया,

मुझे लगा 

शायद उन्हें बुरा लगा हो

एक भय निर्मित हुआ

और अपमान का क्रोध भी

डिलीट कर दिया संदेसा,


मुझे होली संदेसा में

नहीं लेनी चाहिए थी

अभिव्यक्ति की इतनी छूट,

खुद को कोसते रहा

होली के रंगों संग

कि उनका संदेसा आया

Happy Holi

लगा जीवनदान मिल गया,

“फेस्टिवल के दिन बहुत

काम होता है आपको पता ही है।

टाइम नहीं मिल रहा था 

रिप्लाई करने का,।“

उनका यह संदेश रंग गया

भीतर तक,


आरम्भ हुआ उनका संदेश

शब्दविहीन

इमोजी, इमेज आदि संग,

झेल न पाया वह तरंग

हाँथ जोड़ बोला 

बस अब और नहीं

मिल गए सभी रंग,

बस कीजिए न!

गिड़गिड़ाया,


शब्द बौने पड़ गए थे

इलेक्ट्रॉनिक और इंटरनेट

प्रतीक, इमेज के आगे

या कि

अभिव्यक्ति में

महिला हमेशा से

पुरुष से हैं आगे।


धीरेन्द्र सिंह

15.03.2025

07.22

गुरुवार, 13 मार्च 2025

शुभ होली

 शुभ होली -जीवन की टोली


जिसका जितना मन महका उतना बहका है

रंग होली कर धारित कई अभिनव तबका है


कुछ घर में रंगों की गुणवत्ता जांचे यूं ही

कुछ मानें हुडदंग अनियंत्रित बाहर क्यों जी

ऐसे भी होती होली जिसमें मन चहका है

रंग होली कर धारित कई अभिनव तबका है


कुछ शब्दों में भाव भर करते रहते पोस्ट

मिली प्रतिक्रिया से रंग स्मिति करते ओष्ठ

अपनी कल्पना में रंग नए वह रचता है

रंग होली कर धारित कई अभिनव तबका है


शब्द से अधिक कहीं रंगभरी मेरी हथेली है

यह रंग लगे जो परिचित, सखा, सहेली हैं

उनको दिया रचि रंग कहें दिल ना सबका है

रंग होली कर धारित कई अभिनव तबका है।


धीरेन्द्र सिंह

13.03.2025

20.51



बुधवार, 12 मार्च 2025

बाधित होली

 अबकी संभल चलिए उत्सवी टोली में

रंग-रंग तरंग लगे बाधित क्यों होली में


रंगों की यदि बात करें सर्वश्रेष्ठ तिरंगा

दीवानों-मस्तानों से बना राष्ट्रीय झंडा

तब सब रंग विहंग थे उत्सवी बोली में

रंग-रंग तरंग लगे बाधित क्यों होली में


अपनों में परिचित समूह तक है सीमा

अबीर-गुलाल उड़ान गति लागे धीमा

चौहद्दी सी रही उभर सबकी रंगोली में

रंग-रंग तरंग लगे बाधित क्यों होली में


मुट्ठीभर रंग-गुलाल से व्यक्तित्व सजाऊँ

आ मिल रंगकर होरी गाएं खुशियां लुटाऊं

होली के दिन रंग जाएं सब हमजोली में

रंग-तरंग लगे बाधित क्यों होली में।


धीरेन्द्र सिंह

12.03.2025

13.12



सोमवार, 10 मार्च 2025

ऑनलाइन रिश्ता

 कोई भाई, कोई अंकल, गुरु कोई प्रियतम

ऑनलाइन क्या हुआ रिश्तों का यह चलन


कितनी आसानी से जुड़ जाते हैं यहां लोग

व्यक्तित्व न रखें एकल हो रिश्ते का भोग

संस्कार है या संगत या असुरक्षा का दलन

ऑनलाइन क्या हुआ रिश्तों का यह चलन


व्यक्ति कहीं एकल निर्द्वंद्व नहीं है दिखता

उपनाम या विशेषण में रहता गुमसुम सिंकता

सब शीत लगें भीतर अकेले में प्रगति गलन

ऑनलाइन क्या हुआ रिश्तों का यह चलन


एक भय है समाज में हर पग पर जोखिम

व्यक्ति मिलता नहीं सम्पूर्ण खोजें दैनंदिन

स्वतंत्र व्यक्तित्व उभारे नव ऊर्जा का दहन

ऑनलाइन क्या हुआ रिश्तों का यह चलन।


धीरेन्द्र सिंह

11.03.2025

05.44