रविवार, 29 सितंबर 2024

ऐ सखी

 ऐ सखी ओ सखा प्रीत काहे मन बसा

आप तो लिखते नहीं क्या मैं हूँ फंसा


इतना हूँ जानता जो जिया मन लिखा

बेमन है जो लिखे खुद कहां पाते जीया

जीतना कहां किसे मीठे ऐंठन में कसा

आप तो लिखते नहीं क्या मैं हूँ फंसा


नित्य लेखन प्रक्रिया हुई ना ऐसी क्रिया

कथ्य की वाचालता भाव उभरी कहे प्रिया

मनोभाव आपके भी दर्शाते क्या ऐसी दशा

आप तो लिखते नहीं क्या मैं हूँ फंसा


असभ्य ना अशिष्ट समझें शब्द यहां फंसा

झूमने लगे क्यों कोई बिन वजह बिन नशा

अपनी गोल से पूछता बेवजह क्यों हंसा

आप तो लिखते नहीं क्या मैं हूँ फंसा।


धीरेन्द्र सिंह

29.09.2024

14.09


शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

त्रिनेत्र

 या तो आंख मूंद लें या देखें अपना क्षेत्र

पढ़ लिए समझ लिए अब खोलना त्रिनेत्र


छः सात वर्ष की बच्चियां यौन देह क्रूरता

बालिका क्या समझे कैसे कौन है घूरता

कवि की रचना में काम अर्चना ही क्षेत्र

पढ़ लिया समझ लिया अब खोलना त्रिनेत्र


कौन कहां कैसे उलझाए, रहा है नया खेल

भोलापन सीखने के क्रम में, जाता बन भेल

कर्म अब विधर्म होकर सत्कर्म को करें अनेत्र

पढ़ लिया समझ लिया अब खोलना त्रिनेत्र


देह के सिवा भी हैं जीवन की कई समस्याएं

सब कुछ पा लेने को जबरन देह ही बिछा जाए

क्षद्म अब श्रृंगार, है कलुषित सौंदर्य अक्षेत्र

पढ़ लिया समझ लिया अब खोलना त्रिनेत्र।


धीरेन्द्र सिंह

27.09.2024

14.45



गुरुवार, 26 सितंबर 2024

वशीभूत

 मन है बावरा, मन उद्दंड है

तन वशीभूत, उन्मादी प्रचंड है 


प्रत्येक मन में अर्जित संस्कार

प्रत्येक जन में सर्जित संसार

सबकी दुनिया अपना प्रबंध है

तन वशीभूत, उन्मादी प्रचंड है


शक्ति का वर्चस्व ना संविधान

खुदगर्जियाँ तो संविधान लें तान

भ्रष्टाचार भी आक्रामक महंत है

तन वशीभूत, उन्मादी प्रचंड है


वर्तमान सहेजना भी है दायित्व

व्यक्ति संभाले सामाजिक व्यक्तित्व

अपराध घटित होने पर दंड है

तन वशीभूत, उन्मादी प्रचंड है।


धीरेन्द्र सिंह

27.09.2024

07.56




सोमवार, 23 सितंबर 2024

देहरुग्ण

 ना समझ आने का दुख तो बहुत है

जब वह अपनी कुंठाएं बताए, क्या करूँ

ऑनलाइन समूह में यौन उन्माद मिलता

प्यार विकृत घिनौना चिढ़ाए, क्या करूँ


चंद हिंदी समूह ही साहित्य चांदनी भरे

अधिकांश समूह देह उन्मादी, क्या करूं

अनेक समूह ऐसे छोड़ता रहा हूँ मैं

महामारी सा लगें उभरने तो, क्या करूँ


कैसे लूं आंख मूंद इस महामारी से

नारी सौंदर्य हैं यह बिगाड़ते, क्या करूँ

ऐसे समूह प्यार को कुरूप घृणित बनाएं

प्यार देह तक हैं उलझाएं, क्या करूं


क्या करूं, क्या करूँ का जप छोड़ना पड़े

यौन मानसिक रुग्णता की, दवा करूं

प्रणय की वादियों में देह ही ना मिले

सुगंध अनुभूतियां खिलती रहें, छुवा करूं।


धीरेन्द्र सिंह

24.09.2024

09.52




रविवार, 22 सितंबर 2024

बाजू

 उन महकते बाजुओं में आसुओं की नमी

बाजुओं को ना छुएं आंसुओं की हो कमी


बह गया उल्लास के चीत्कार में वह नयन

और मन उदास हो सूखता देखे है उपवन

खुरदुरी कभी लगे सूखी सी यह दिल जमीं

बाजुओं को ना छुएं आंसुओं की हो कमी


श्रम करे, श्रृंगार करे घर का नित उपचार करे

भ्रम कहीं ना कोई रहे बाजुओं से सुधार करे

मुस्कराता घर मिले जिसमें पुलकित हमीं

बाजुओं को ना छुएं आंसुओं में हो कमी


भोर होते चाँद निखरे तक हैं पुरजोशियाँ

रच दिया रख दिया घर लोग की मनमर्जियाँ

और समझें उन बिन कोई लगती ना कमी

बाजुओं को ना छुएं आंसुओं में हो कमी।


धीरेन्द्र सिंह

23,.09.2024

10.28

अनकही

अनकही बात भी करती बतकही

रहने दें तो क्या न होगी कहाकही

उन आँखों के सवाल मचाते धमाल

इन आँखों के जवाब थे कब सही


यूं ना हमको अब आप भरमाइए

मानता हूँ आप जो कहें है सही

आपके नयन करें चतुर्दिक गमन

मनन करते-करते रह गए हैं वहीं


और कितने हैं नयन भरे सवाल

दिल को कब तक रखें प्रश्न बही

अनकही बात रचे कब तक नात

स्पंदित भाव सघन झंकृत हो सही।


धीरेन्द्र सिंह

22.09.2024

17.36



शनिवार, 21 सितंबर 2024

जीवंत रचना

उन्होंने किया अभिव्यक्त

जीवित हूँ मैं

श्वासों की गतिशीलता

मेरे जीवित होने का प्रमाण है,

फूल सी खिलखिलाती हूँ

तुम्हारी और मेरी दृष्टि में

बस इतना अंतर है

मैंने तुम्हारे होने में

सुगंधित खिलखिलाते

फूल रूपी अस्तित्व को

स्वीकारा है

और तुमने

मेरी जली भूनी हड्डियों में;


आश्चर्य हुआ पढ़कर

क्योंकि

यह हमेशा दर्शन, जीवन पर

लिखती हैं

किन्तु आज विषय किस काज,

आंदोलित हो जाता है पुरुष

हो जाती है नारी जब मुखर

तब बौखलाया पुरुष

करता है बात

शालीनता और मर्यादा की

तब मुस्करा उठती है नारी;


उन्होंने आज क्यों लिखा

अस्तित्व और अस्थि

इसी चिंतन में लगा

है नारी समग्र सृष्टि

और पुरुष पर्वत

जिसपर सृष्टि विस्तृत, उन्मुक्त

गा रही है गीत

कोमलतम संवेदनाओं संग

भर पर्वत में तरंग

अपनी पुष्प वाटिकाओं संग

नहीं कह पाता कुछ

कहां पाए पर्वत

नारी मन।


धीरेन्द्र सिंह

21.09.2024

18.07