रविवार, 7 अप्रैल 2024

कागतृष्णा


याद उनकी आती क्यों है एकाएक

मन बहेलिए सा क्यों दौड़ पड़ा

काग तृष्णा देख आया सब जगह

अब तो मिलता ही नहीं जलघड़ा

 

रिश्ते के बिना भी रहे हमकदम

जाल कोई सा उनपर आन पड़ा

कोई कहे चतुराई थी सजग तभी

कोई कहे स्वार्थपूरित था ज्ञान खड़ा

 

शब्द सूखे लगने लगे थे भावरहित

और वहीं चाह थी रह तड़पड़ा

एक गया जग गया निज श्वास से

सब वह अपनी अभिव्यक्तियों में बड़बड़ा

 

घेरकर अपने वलय में करे कलह

टेरकर भी रच सका न गीत अड़ा

कागतृष्णा उड़ि चला उसी छोर फिर

तलहटी में जल लिए हो घड़ा पड़ा।

 

धीरेन्द्र सिंह

07.04.2024

17.21

गुरुवार, 4 अप्रैल 2024

व्योम को नहलाएं

 आ समंदर बाजुओं में, व्योम ओर धाएं

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं


तृषित वहीं है व्योम, छल का है क्षोभ

साथ चलना उन्मत्त उड़ना, मेघ का लोभ

सागर में मेघ को, पुनः सकल मिलाएं

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं


धीर है, गंभीर है, विश्वास भरा तीर है

दृष्टि थम जाए जहां, ऐसा वह प्राचीर है

बदलियों की चंचलता, आसमान भरमाए

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं


सूर्य की तपिश में व्योम की कशिश

वाष्प से बदली, व्योम में ही रचित

व्योम ने तराशा उसे, बिन बोले बरस जाए

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं


मेघ, बदली, बादल एक, हैं श्वेत-श्यामल

जब धरा की प्रीत जागे, गरजें-बरसे पागल

ठगा हतप्रभ व्योम का दग्ध मन कुम्हलाए

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं।


धीरेन्द्र सिंह


04.04.2024

21.14

बुधवार, 3 अप्रैल 2024

फुलझड़ियाँ

 अधर स्पंदित अस्पष्ट

नयन तो हैं स्पष्ट

ताक में भावनाएं

कब लें झपट


जहां जीवंत समाज

दृष्टि छल कपट

चुहलबाजी में कहें

चाह तू टपक


इतने पर आपत्ति

व्यवहार न हो नटखट

ऐसे आदर्शवादी जो

गए कहीं भटक


अट्ठहास दिल खोल

अभिव्यक्ति लय मटक

जिंदगी की फुलझड़ियाँ

ऐसे ही चटख।



धीरेन्द्र सिंह

02.04.2024

21.32

मंगलवार, 2 अप्रैल 2024

देहरी

देहरी पहुंचा उनके, देने कदम आभार
समझ बैठी वह, आया मांगने है प्यार

ठहर गया वह कुछ भी ना बोला
नहीं सहज माहौल प्रज्ञा ने तौला
फिर बोली क्यों आए, खुले ना द्वार
समझ बैठी वह आया मांगने है प्यार

कैसे बोलें क्यों बोलें देहरी की वह बात
नीचे भागी-दौड़ी आयी थी ले जज्बात
उसी समन्वय का करना था श्रृंगार
समझ बैठी वह आया मांगने है प्यार

उसकी निश्चल मुद्रा देख, बोली भयभीत
जाते हैं या दरवाजे को, बंद करूँ भींच
वह मन ही मन बोला, देहरी तेरा उपकार
समझ बैठी वह आया मांगने है प्यार

क्या कभी याचना से प्राप्त हुआ है प्यार
क्या कभी प्यार भी रहा बिन तकरार
वह गया था देहरी को करने नमस्कार
समझ बैठी वह आया मांगने है प्यार।


धीरेन्द्र सिंह
02.04.2024
13.17

सोमवार, 1 अप्रैल 2024

गांव

 सूनी गलियां सूनी छांव

पिघल रहे हैं सारे गांव


युवक कहें है बेरोजगारी

श्रमिक नहीं, ताके कुदाली

शिक्षा नहीं, पसारे पांव

पिघल रहे हैं सारे गांव


खाली खड़े दुमंजिला मकान

इधर-उधर बिखरी दुकान

वृक्ष के हैं गहरे छांव

पिघल रहे हैं सारे गांव


भोर बस की ओर दौड़

शहर का नहीं है तोड़

शाम को चूल्हा देखे आंव

पिघल रहे हैं सारे गांव


वृद्ध कहें जीवन सिद्ध

कहां से पाएं दृष्टि गिद्ध

घर द्वार पर कांव-कांव

पिघल रहे हैं सारे गांव


भागे गांव शहर की ओर

दिनभर खाली चारों छोर


रात नशे का हो निभाव

पिघल रहे हैं सारे गांव।


धीरेन्द्र सिंह

01.04.2024

18.30

रविवार, 31 मार्च 2024

सूर्य खिसका

 सांझ पलकों में उतरी, सूर्य खिसका

आत्मभाव बोले कौन कहां किसका


चेतना की चांदनी में लिपटी भावनाएं

मुस्कराहटों में मछली गति कामनाएं

मेघ छटा है, बादल बरसा न बरसा

आत्मभाव बोले कौन कहां किसका


घाव हरे, निभाव ढंके, करे अगुवाई

दर्द उठे, बातें बहकी, छुपम छुपाई

जीवन एक दांव, चले रहे उसका

आत्मभाव बोले कौन कहां किसका


भ्रम के इस सत्य का सबको ज्ञान

घायल तलवार पर आकर्षक म्यान

युद्ध भी प्यार है, दाह है विश्व का

आत्मभाव बोले कौन कहां किसका।


धीरेन्द्र सिंह


31.03.2024

19.42

शनिवार, 30 मार्च 2024

कह दीजिए

 क्यों प्रतीक, बिम्ब हों

क्यों हों नव अलंकार

यदि लहरें हैं तेज तो

कह दीजिए है प्यार


क्यों महीनों तक कश्मकश

क्यों सहें मानसिक चीत्कार


यदि प्रणय की प्रफुल्ल पींगे

कह दीजिए है प्यार


साहित्य सृजन है कल्पना

मनभाव का है झंकार

यदि यथार्थ जीना हो

कह दीजिए है प्यार


आदर्श, परंपरा और नैतिकता

प्रणय न जाने यह पतवार

यदि लहरों सा हौसला

कह दीजिए है प्यार।


धीरेन्द्र सिंह