मंगलवार, 19 मार्च 2024

वहीं से चले

 वहीं से उतर कहीं वाह हो गए

वहीं से चले थे वहीं राह हो गए


अकस्मात है या कि कोई बात है

अनुबंध है या वही जज्बात है

कदम थे भटके या राह खो गए

वहीं से चले फिर वहीं राह हो गए


कहीं से उतरना ना होता सहज

उतरती सहजता या कि समझ

उखड़ता कहां, गहन चाह बो गए

वहीं से चले फिर वहीं राह हो गए


पीटें कनस्तर कहें यह है ढोल

मन की धुन में मन के हैं बोल

बेफिक्री इतनी व्योम अथाह हो गए

कहीं से चले फिर वहीं राह हो गए


कहें भूल गए पर ना भुला जाता

हृदय कब तिरस्कारे जो मन भाया

खयालों में बंध सुप्त प्रवाह हो गए

वहीं से चले फिर वहीं राह हो गए।


धीरेन्द्र सिंह


19.03.2024

14.48

शोख रंग

 शोख रंग अब जाग रहे हैं

मन ही मन कुछ ताग रहे हैं

मौसम है कुछ कर जाने का

संग अभिलाषाएं भाग रहे हैं


अबीर-गुलाल कपोल से भाल

शेष रंग में निहित धमाल

मन अठखेली में पाग रहे हैं

संग अभिलाषाएं भाग रहे हैं


सुसंगत है यहां रंग बरजोरी

हैं रंग दृगन की कमजोरी

रंग शोख तुम्हें साज रहे हैं

संग अभिलाषाएं भाग रहे हैं


मन कुलांच लागे नहीं साँच

मन अपने को रहता माँज

रंग उमंग ही भाग्य रहे हैं

संग अभिलाषाएं भाग रहे हैं।


धीरेन्द्र सिंह

19.03.2024

04.37

शनिवार, 16 मार्च 2024

ना जाने

 ना जाने हम कैसे महकते रहे

चली राह वैसे हम चलते रहे

एक संगीत गूंजती थी मेरे साथ


अलमस्त गीतों को रचते रहे


मिली कुछ अदाएं जैसी फिजाएं

आँचल सी लहराती मोहक दिशाएं

जहां तक हवाएं बहकते रहे

अलमस्त गीतों को रचते रहे


प्रणय का विलय शब्द भाव किए

बहुत दूर हैं संग उनके ही जिए

तिरस्कार पाकर सुप्त जलते रहे

अलमस्त गीतों को रचते रहे


संग जी लिया उम्र को पी लिया

आसक्त था अनासक्त अब जिया

राह एकल ढलते उभरते रहे

अलमस्त गीतों को रचते रहे।


धीरेन्द्र सिंह

16.03.2024

2१.02

वह हैं कहते

 मुझे इन पलकों से अनुमति मिली है

अब वह हैं कहते कि सहमति नहीं है


नयन के विवादों से हुआ था समझौता

नत होकर पलकों ने दिया तब न्यौता

अधर स्मिति रचि मति गही है

अब वह हैं कहते कि सहमति नहीं है


फागुन के पाहुन की हो रही अगुवाई

प्रीत की झंकार निखार रही अंजुराई

चाहत की चौखट चमकती वहीं है

अब वह हैं कहते कि सहमति नहीं है


रंगों ने बाजार में ग़दर है मचाई

पर रंगने में उसकी है ढिठाई


“बुरा न मानो” रास्ता ही सही है

अब वह हैं कहते कि सहमति नहीं है।


धीरेन्द्र सिंह

16.03.2024

19.23

शोर

 बहकते रहो तुम भभकते रहो

शोर के भाव ले चहकते रहो


कुछ किताबें लिखी जो हो बतकही

विद्वता का पताका कही सो सही

मूल क्या है कभी ना लहकते गहो

शोर के भाव से चहकते रहो


यह ना समझें चालें हैं अज्ञात

विगत की धूरी से लेखन नात

धर्म ग्रंथ कथानक लिखते बहो

शोर के भाव से चहकते रहो


एक आकर वर्तनी सुधारने लगे

भाषा अज्ञानता को बखानते चले

भाषा भंगिमा संग यूं गमकते ढहो

शोर के भाव से चहकते रहो


फेसबुकिया मंडली के ओ शिल्पकार

कमेंट्स और लाइक के हो तलबगार

उड़ ना पाओगे ऐसे ही मंजते रहो

शोर के भाव से चहकते रहो।


धीरेन्द्र सिंह

16.03.2024

15.20

एक खयाल

 एक खयाल का कमाल 

आप ही का है धमाल 

स्पंदनों की चाँदनी है 

दूरियों का है मलाल 


तुम कहो क्यों सोच 

विगत का ही सवाल 

ऐसी सोच से ही 

हृदय करता है बवाल 


सुन रही हो रागिनी

स्वर का है मलाल 

सप्तक हतप्रभ खड़े हैं 

भटक गए हैं ताल 


चलो एकराग अब बनें

गति हो सुगम द्रुतताल 

समन्वय ही राह जीवम

तुम सदा हो दृगभाल। 


धीरेन्द्र सिंह 

15.03.2024 

22.36

खोजते ही रहे

 कहाँ किसकी कब लगी यह दुआ 

कथानक अचानक नियामक हुआ


जो सोचा उसे खोजते ही रहे 

लोग ऐसे मिले रोकते ही रहे 

अब किसने हौले मन को छुआ

कथानक अचानक नियामक हुआ 


शब्द प्रारब्ध से हो रहा स्तब्ध 

भाव भी क्रमशः होते रहे ध्वस्त  

दिल रहा बोलता लगी है बददुआ 

कथानक अचानक नियामक हुआ 


सहजता सरलता सत्यता का सम्मान 

करे अभिव्यक्त जीवन के आसमान 

तापमान स्थिर शेष गया बन धुआं 

कथानक अचानक नियामक हुआ। 


धीरेन्द्र सिंह 

15.03.2024

14.48