सोमवार, 19 मार्च 2018

बालियां

फूलों से लदी झूमे जो डालियाँ
तुम्हारी बालियां

भौरें की परागमयी लुभावनी पंखुड़ियां
तुम्हारी बालियां

तट की तरंगें बगुला की युक्तियां
तुम्हारी बालियां

भावों का वलय तृष्णा पुकार दरमियाँ
तुम्हारी बालियां

होती होंगी कान्हा-गोपी की गलियां
तुम्हारी बालियां

कपोल का किल्लोल मनभावन चुस्कियां
तुम्हारी बालियां।

धीरेन्द्र सिंह

हिंदी

चलत फिरत चौपाल चहुबन्दी
कहते सबकी जुबान है हिंदी
समरसता युग्म एकता रचाए
रश्मियों की मुग्धजाल है हिंदी

सब जानें बातों की ही हिंदी
भाषाजगत में भी चकबंदी
भाषा कामकाजी विरक्त है
दिग दिगंत जैसे शिव नंदी

कभी लगे भरमाती हिंदी
लिखित प्रयोग न पाती हिंदी
ढोल नगाड़े पर जो थिरके
ऐसी ही हिंदी हदबंदी

सुने प्रयोजनमूलक हिंदी नहीं
हस्ताक्षर को भी न भाए हिंदी
लिखित घोषणाएं हुईं बहुत
फाइल साज बजे पाखंडी।

धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 7 मार्च 2018

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस

शब्दों की गुहार है उत्सवी खुमार है
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस झंकार है

शहर, महानगर व्यस्त हैं आयोजन में
अर्धशहरी, ग्रामीण मस्त अनजानेपन में
जो शिक्षित उनका ही दिवस रंगदार है
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस झंकार है

शिक्षा प्राप्त नहीं लगी घर के कामकाज में
नारी अधिकार का ज्ञान नहीं सीमित राज में
चौका, चूल्हा, बर्तन, भांडा जीवन अभिसार है
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस झंकार है

शिक्षित नारी रचती फुलवारी एक आंदोलन में
फेसबुकिया उन्माद चले नव रचना बोवन में
ऐसे आंदोलन, लेखन का गावों को दरकार है
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस झंकार है

नारी को नारी सिखलाये लाज,शर्म के आंगन में
नारी का सुखमय जीवन सास, ससुर, पिय छाजन में
बचपन से नारी व्यक्तित्व में परंपराएं लाचार हैं
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस झंकार है

शिक्षा ही ब्रह्मास्त्र है जीवन के इस जनमन में
शिक्षित नारी सुदृढ स्थापित भुवन, चमन में
नारी ही परिजन का प्रतिबद्ध पतवार है
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस झंकार है।

धीरेन्द्र सिंह

सोमवार, 5 मार्च 2018

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी को जिंदादिली नहीं
इंसां कहीं तो ज़िन्दगी कहीं
फकत ईमानदारी ही जरूरी
बाकी सब तकल्लुफ वहीं का वहीं

जरिया जज्बात हो जरूरी नहीं
आबाद खुशफहम चाहे रहे कहीं
फकत दिल्लगी पर रहे अख्तियार
बाकी सब जिल्लतें वहीं का वहीं

नुमाइश की तलबगारी भी नहीं
हसरतें भले कुलांचे भरे कहीं
फकत शख्सियत की तीमारदारी
बाकी सब उल्फतें वहीं का वहीं

माशूका हो करीब जरूरी तो नहीं
इश्क़ ज़र्द सूफियाना हो तो कहीं
फकत एहसासों की नर्म चादर रहे
बाकी सब महफिलें वहीं का वहीं।

धीरेन्द्र सिंह

नई पीढ़ी

अदब दब अब गुमाँ हो गई
यही सोच नया पीढी भी नई

संस्कार के आसार अब कहां
विद्या कभी नौकरी यहां-वहां
परिवेश आत्मचिंतन धुंधला गई
यही सोच नया पीढ़ी भी नई

न रहा संयुक्त परिवार दादा-दादी
इलेक्ट्रॉनिक युग सुनाए मुनादी
हसरतें कब मिलीं कुम्हला गईं
यही सोच नया पीढी भी नई

समाज, देश का रहा न कोई सोच
अंतरराष्ट्रीय बनने की नोचम नोच
उच्चता की मृगतृष्णा जड़ छोड़ गई
यही सोच नया पीढ़ी भी नई

धीरेन्द्र सिंह

व्यक्तित्व

खुद से बने वो प्राचीर हो गए
अनुगामी जो रहे तामीर हो गए

स्वनिर्माण भी है बुनियादी संस्कार
पखारा किए खुद को और धो गए

बेजान ही प्रवाह में उछलता खूब
आते हैं जाते हैं अनेकों खो गए

स्वनिर्माता खुद का विधाता भी
पढ़ने की कोशिशों में लोग रो गए

खुद को गढ़ने, पढ़ने में हो व्यतीत
अतीत दर्शाता कहे लो वो गए

फौलाद सी सख्ती मक्खनी कोमलता
ऐसे ही लोग उर्वरा बीज बो गए।

धीरेन्द्र सिंह

बिंदिया

           बिंदिया

एक आग मसल अंगुलियों में
बिंदिया बना दूं
भाल पर ताल ज़िन्दगी का दे
सरजमीं सजा दूं
सम्मोहित दृष्टि की वृष्टि में
तिरोहित आकांक्षाएं
रूप के ओ अप्रतिम अंदाज़
आ दिलजमीं बना दूं

अनूठेपन धारित आलोकित रूप
रश्मियाँ छंटा दूं
लपेटकर अपनी अंगुलियों में प्रीत
युक्तियां अटा दूं
सुर सितार कपाल ध्वनित करे
समर्पित बेसुध अंगुलियां
प्रेम गहनता समेट बिंदिया की
रीतियां बसा दूं

एक आग मसल अंगुलियों में
बिंदिया बना दूं
ललाट लहक उठे ज्वाल प्रीत
सिद्धियां बहा दूं।

धीरेन्द्र सिंह