Nijatata काव्य

बुधवार, 3 दिसंबर 2025

व्यक्ति

व्यक्ति जितना जीवन में संभल पाएंगे

स्वयं को और अभिव्यक्त कर पाएंगे

व्यक्ति निर्भर है किसी व्यक्ति पर ही

अकेला सोच कर व्यक्ति डर जाएंगे


हाँथ में हाँथ या कंधे पर थमा विश्वास

जुड़कर जीवनी जुगत कई कर जाएंगे

भीड़ में व्यक्ति अपनों को ही ढूंढता है

अपरिचित भीड़ भी तो व्यक्ति, कुम्हलायेंगे


निर्भरता स्वाभाविक है जीवन डगर में

मगर क्या आजन्म निर्भर रह पाएंगे

व्यक्ति आकर्षण है आत्मचेतनाओं का

वर्जनाओं में संभावनाएं तो सजाएंगे


मन है भागता कुछ अनजान की ओर

सामाजित बंधनों को कैसे तोड़ पाएंगे

तृप्त की तृष्णा में तैरती अतृप्तियां हैं

व्यक्ति भी व्यक्ति संग कितना संवर पाएंगे।


धीरेन्द्र सिंह

04.12.2025

06.51

गोवा



सोमवार, 1 दिसंबर 2025

बतकही

नहीं लिखूंगा नई रचना मन कहे नहीं

भावनाएं बोल उठीं करते हैं बतकही


अभिव्यक्तियाँ कभी भी रुकती नहीं

आसक्तियां परिवेश से हैं कटती नहीं

संभावनाएं उपजे हों घटनाएं चाहे कहीं

भावनाएं बोल उठीं करते हैं बतकही


अनुभूतियों का भावनाओं में जगमगाना

भावनाओं में अभिव्यक्तियों का कसमसाना

शब्दों में भाव घोलकर सम्प्रेषण रचें कई

भावनाएं बोल उठीं करते हैं बतकही


आदत है या ललक प्रतिदिन का लिखना

सृष्टि है स्पंदित तो कठिन है चुप रहना

कुछ उमड़-घुमड़ रहा पकड़ न पाएं अनकही

भावनाएं बोल उठीं करते हैं बतकही।


धीरेन्द्र सिंह

02.12.2025

06.13



शनिवार, 29 नवंबर 2025

काया

 एक काया अपनी सलवटों में भर स्वप्न

जीवन क्या है समझने का करती यत्न

झंझावातों में बजाती है नवऋतु झांझर

अपने सुख-दुख भेदती रहती है निमग्न


सृष्टि का महत्व अपने घनत्व तक तत्व

शेष सब निजत्व सबके अपने हैं प्रयत्न

कौन मुंशी किसकी आढ़त सत्य सांखल

देह अपनी अर्चना से दृष्टि गढ़ती सयत्न


अनुभूतियों की ताल पर देह का ही नृत्य

आत्मा अमूर्त अदृश्य मोक्ष भाव से संपन्न

अभिलाषाएं ले अपनी कुलांचें झूठे सांचे

कोई कहे तृप्ति लाभ तो कोई कहे विपन्न


काया ने भरमाया या काया से सब करपाया

मोह का तमगा लगा देह उपेक्षित आसन्न

आत्मा के पीछे दौड़ ईश्वर पर निरंतर तौर

काया, आत्मा भरमाती फिर भी सब प्रसन्न।


धीरेन्द्र सिंह

01.12.2025

07.53







शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

प्रणय और परिणय

 उम्र में बांटकर हुआ क्या कभी प्यार

बीच फर्क उम्र का क्यों जतलाती यार


आत्मा से आत्मा का होता है जब अनुराग

तब कहीं तन्मयता से उभरती है प्रेम आग

प्यार एक संवेग है जिसपर कठिन अधिकार

बीच फर्क उम्र का क्यों जतलाती यार


कौन अति सम्पन्न कौन आत्मिक है पल्लवित

प्रणय की एक चिंगारी तत्क्षण  करे समन्वित

प्रणय है सीमा परे हृदय पर हृदय अधिकार

बीच फर्क उम्र का क्यों जतलाती यार


प्रणय और परिणय में होता है व्यापक अंतर

प्रणय असीमित परिणय है सामाजिक मंतर

परिणय को प्रणाम प्रणय उन्मुक्तता का द्वार

बीच फर्क उम्र का क्यों जतलाती यार।


धीरेन्द्र सिंह

28.11.2025


21.36


बुधवार, 26 नवंबर 2025

एकल बच्चा

 बच्चे लड़ें सहज जीवन पढ़ें

अभिभावक ना आपस में नड़े


बच्चे खेलते हैं लड़ते-झगडते हैं

जीवन को समझते ऐसे बढ़ते हैं

यह स्वाभाविक विकास ना पचड़े

अभिभावक ना आपस में नडें


व्यस्त अभिभावक एक बच्चे तक

अभिभावक व्यस्त एकाकी बच्चे तक

भावनाएं मित्रों बीच लडखडाये, उड़े

अभिभावक ना आपस में लड़ें


एक बच्चे का बढ़ता हुआ है चलन

ख़र्चे बच्चे का रोकते हैं आगे जनन

बाल सुलभ चंचलता बाल संग बढ़े

अभिभावक ना आपस में लड़ें


दूसरों के घर दो बच्चे देख हो मुग्धित

सोचे वह होता दो नोक-झोंक समर्थित

एकल संतान अपनी भावनाओं से जड़े

अभिभावक ना आपस में लड़ें।


धीरेन्द्र सिंह

27.11.2025

05.47



मंगलवार, 25 नवंबर 2025

ज्वालामुखी

 ज्वालामुखी

कब दिखती है रौद्र

पहाड़ के भीतर

अपनी प्रक्रिया में 

अनवरत

रहती है खौलती

ललक में,


क्रिया की प्रतिक्रिया 

अथवा

प्रक्रिया की स्वक्रिया

शोधार्थी सक्रियता से

इस तूफानी उठान की

कर रहे विभिन्न खोज,

ज्वालामुखी क्रिया

निरंतर हर रोज,


फूटती हैं हृदय 

हृदय की भी ज्वालामुखी

लक्षित प्यार पर

छा जाती है

राख की बादल बन,

एक आग संजोया है दिल

उमड़ती-घुमड़ती

चिंगारियों को समेटे,


सर्जना, अर्चना

शोध, प्रतिशोध

पाते अवरोध,

रचते -बसते-फड़कते

घूमते रहते हैं भीतर

व्यक्ति चलते रहता है

भीतर ज्वालामुखी संजोए,


ज्वालामुखी सक्रिय पहाड़

रहते हैं विभिन्न निगरानी में

यही तथ्य है जुड़ा

मानव की जिंदगानी में,

निष्क्रय पहाड़ को

स्थिर औंधे पाते हैं

इसीलिए यह पहाड़

प्रायः रौंदे जाते हैं।


धीरेन्द्र सिंह

26.11.2025

05.13





सोमवार, 24 नवंबर 2025

धर्मेंद्र - श्रद्धांजलि

 बार-बार हृदय देखे नयन वह बसा है

गबरू जवान यौवन धर्मेंद्र का नशा है

अपनी ही मस्तियों से बस्ती को हंसाए

सत्तर दशक की फ़िल्म की यही दशा है


स्वभाविक बदन सौष्ठव हृदय ही घड़कनें

धर्मेंद्र पुरुष पूर्ण थे उन्मुक्तता के कहकहे

शायरी कवित्व में उनके लगे फलसफा है

सत्तर दशक की फ़िल्म की यही दशा है


स्वप्न सुंदरी जिसका कई दशक रहा दीवाना

धर्मेंद्र और हेमा का था मुग्धित नया तराना

नृत्य इनका कब गीत-संगीत बीच फंसा है

सत्तर दशक की फ़िल्म की यही दशा है


अलमस्त हमेशा व्यस्त सब कुछ करते थे व्यक्त

गठीले बदन भीतर कवि हृदय हरदम आसक्त

एक बांकपन से जीवन में मथा कई नशा है

सत्तर दशक की फ़िल्म की यही दशा है।


धीरेन्द्र सिंगज

24.11.2025

19.16



रविवार, 23 नवंबर 2025

सजिए खूब

विवाह का समय है यह तो

सभी करते हैं भरपूर श्रृंगार

डॉक्टर भी कितने नासमझ

कहें सर्दी कारण हृदय विकार


पुरुष भी सलोन में जाकर सजते

अबके पुरुष छवि को देते संस्कार

नारी पारंपरिक सज्जा आधिकारिणी

कैसी लग रही हूँ पूछें होकर तैयार


सौंदर्य सुनियोजित प्रायः है बोलता

दृष्टि प्रशंसात्मक बिन यौन विकार

चाह कर भी बोल न पाए "क्या बात"

कान उमेठ देगा सामाजिक आचार


हृदय के लचीलेपन की है परीक्षा

वैवाहिक दिन में ऐसी होती झंकार

सजिए खूब चमकिए पर्व इसी का

स्वयं की सुघड़ प्रस्तुति भी अधिकार।


धीरेन्द्र सिंह

23.11.2025

19.22



शनिवार, 22 नवंबर 2025

इनबॉक्स

 इनबॉक्स में आपसे चैट करना

कुछ होता निर्मित कुछ का ढहना

क्यों अच्छी लगती आपकी बातें

आप मित्र बन गईं अब क्या कहना


बच्चों जैसी होती उन्मुक्त सी बातें

करतीं आप अनुरोध प्यार ना कहना

अब तक आप पर ही बातें सभी हुईं

खुश हैं आप तो और मुझे क्या करना


मात्र परिचय समूह पोस्ट से हमारी

चेहरा, परिचय अज्ञात लगे यह सपना

आह्लादित, अंजोर हृदय अद्भुत लगता

लंबी-लंबी चैट हमारी कुहूक का गहना


प्यार आप ठुकराती कहती मित्र हैं हम

क्या मित्रता प्यार रहित होती है अंगना

दूरस्थ ऑनलाइन द्वारा शब्द भाव उभरे

जीवन कैसे मोड़ ले रही ओ मेरी सपना।


धीरेन्द्र सिंह

23.11.2025

06.20

शुक्रवार, 21 नवंबर 2025

यकीन

किसी यकीन पर झिलमिलाती चाहत की बूंदे

एक दौर अपनी जिंदगी का सप्तरंगी सजाएं

किसी यथार्थ भूमि की परत खुरदरी यूँ बोले

एकल धमक की ललक को यूँ कैसे समझाएं


वह हिमखंड सा छोटा सिरा दुनिया को दिखलाए

वह ऐसी तो नहीं क्या पता कितने समझ पाए

पताका फहराने भर से विजय का क्यों निनाद

बात है कि सब संग जुड़ अपनों सा झिलमिलाएं


तुम एक द्वीप हो एक देश हो मनभावनी दुनिया

किनारे लोग आमादा क्या पता कौन पहुंच पाए

जो दूर है बदस्तूर है बस नूर है सुरूर अलहदा

यकीन क्यों न हो मोहब्बत उन्हें सोच खिलखिलाए।


धीरेन्द्र सिंह

21.11.2025

22.10



लेखन

सामाजिक कुरीतियों पर कविता ना वार करे

ऐसे लेखन से भला संवेदनशील कैसे प्यार करे


प्यार एक जीवन है नहीं कुछ समय का तार

जिनमें नहीं वीरता उनका सच्चा नहीं प्यार

प्यार-प्यार लेखन भरा समस्याएं इंतजार करें

ऐसे लेखन से भला संवेदनशील कैसे प्यार करे


लेखन में धार हो रचनाकार में जग सरोकार

चेतन में तार हो तरंग पहुंचे लोगों तक सार

शब्द लिख दिया बिन डूबे क्रिया पथधार करें

ऐसे लेखन से भला संवेदनशील कैसे प्यार करें


वामपंथी लेखन की ओर कतई नहीं है ईशारा

लेखन यथार्थ हो तो मिले जीवन को सहारा

कुछ सोचे तथ्य नोचे समीक्षा भी कथ्यवार करे

ऐसे लेखन से भला संवेदनशील कैसे प्यार करे।


धीरेन्द्र सिंह

28.11.2025

05.22

गुरुवार, 20 नवंबर 2025

दिल

 क्या संभव है दिल एक से जुड़ा रहे

जोंक सा चिपक जाए नहीं उड़ा रहे

इस असंभव को सभी प्रेमी स्वीकारते

हृदय जैसे नग है अंगूठी में जड़ा रहे


चित्त चंचल प्रवृत्ति है आकर्षण स्वभाव

कौन है जो रात्रिभर चाँद संग खड़ा रहे

प्यार भी तो एक सावनी फुहार सा है

पुलकन, सिहरन लिए बारिशों में पड़ा रहे


विवाह एक धर्म है कर्म सामाजिक निभाना

परिवार की संरचना में जीवन मूल्य मढ़ा करे

दायित्व परिणय है आजीवन निभाने के लिए

हृदय को कौन बांध पाया यह फड़फड़ा तरे।


धीरेन्द्र सिंह

21.11.2025

05.23



बुधवार, 19 नवंबर 2025

हिंदी भगवान

सुन रहा हूँ सत्य के अभिमान को

गुन रहा हूँ कथ्य के नव मचान को

आप केंद्र में एक संभावना बन सुनें

कुछ प्रवक्ता चैनल के भव विद्वान को


चैनलों के कुछ एंकर भूल रहे हिंदी

कुछ प्रवक्ता सक्रिय भाषा अपमान को

आप जनता हैं तो सुनिए यही प्रतिदिन

कौन कहे मीडिया के भाषा नादान को


हिंदी को करता दूषित है हिंदी चैनल

हिंदी शब्द बलि चढ़े अंग्रेजी मान को

कुछ एंकर कुछ प्रवक्ता लील रहे हिंदी

आप कहीं ढूंढिए अब हिंदी भगवान को।


धीरेन्द्र सिंह

19.11.2025

19.22

रविवार, 16 नवंबर 2025

गुठलियां

सर्दियों में सिहर गईं गुठलियां

माटी भी ऊष्मा अपनी खोने लगी

ऋतु परिवर्तन है या आकस्मिक

घाटी भी करिश्मा से रोने लगी


सर्दियों की बनी थीं कई योजनाएं

कामनाएं गुठली को संजोने लगी

वादियों की तेज हवा मैदानी हो गयी 

भर्तस्नायें जुगत सोच होने लगीं


सुगबुगाहट युक्ति की प्रथम आहट

सर्दियां थरथराहट आदतन देने लगी

गुठलियां जुगत की जमीन रचीं

उर्वरक अवसाद भाव बोने लगीं


मौसम परास्त कर न सका गुठलियां

पहेलियां गुठली नित रच खेने लगीं

कल्पना के चप्पू से दूर तलक यात्रा

गुठलियां जमीन को स्वयं पिरोने लगीं।


धीरेन्द्र सिंह

19.08

17.11.2025






नारी रुदन

पोषण है कि शोषण रहे हैं उलझाए

एयरपोर्ट पर नारी रुदन चिंता जगाए

मौन हैं दुखी है या निरुत्तर है मायका

नेतृत्व परिवार नेतृत्व क्यों सकपकाए


अंग अपना दान करती पिता को पुत्री

उसी अंगदान को भंगदान कह चिढाएं

मीडिया के सामने अविरल बही अश्रुधारा

मायका रहा शांत जो सुना वह बुदबुदाए


भैया की कलाई पर अटूट विश्वासी राखी

मस्तक रचि तिलक मुहँ मीठा बहन कराए

कर त्याग मायके का कदम उठाए नारी यदि

अटूट रिश्ता है दरका समाज कैसे संवर पाए।


धीरेन्द्र सिंह

16.11.2025

21.38



शनिवार, 15 नवंबर 2025

आराधना

 हृदय का हृदय से हो आराधना

पूर्ण हो प्रणय की प्रत्येक कामना

आप निजत्व के महत्व के अनुरागी

मैं प्रणय पुष्प का करना चाहूं सामना


तत्व में तथ्य का यदि हो जाये घनत्व

महत्व एक-दूजे का हो क्यों धावना

सामीप्य की अधीरता प्रतिपल उगे

समर्पण की गुह्यता को क्यों साधना


छल, कपट, क्षद्म का सर्वत्र बोलबाला

पहल भी कैसे हो वैतरणी है लांघना

कल्पना की डोर पर नर्तक चाहत मोर

प्रणय का प्रभुत्व ही सर्वश्रेष्ठ जागना


कहां गहन डूब गए रचना पढ़ते-पढ़ते

मढ़ते नहीं तस्वीर यूँ यह है भाव छापना

अभिव्यक्तियाँ सिसक जब मांगे सम्प्रेषण

निहित अर्थ स्वभाव चुहल कर भागना।


धीरेन्द्र सिंह

15.11.2025

23.15



शुक्रवार, 14 नवंबर 2025

मस्त

तन मय होकर हो जाते हैं तन्मय

मन मई होकर सज जाते हैं उन्मत्त

यही जिंदगी की चाहत है अनबुझी

इसको पाकर तनमन हो जाते हैं मस्त


तन की सेवा तन की रखवाली प्रथम

मन क्रम, सोच से हो जाता है बृहत्त

इन दोनों से ही हर संवाद है संभव

बिन प्रयास क्या हो जाता है प्रदत्त


चेहरे की आभा में सम्मोहन आकर्षण

नयन गहन सागर मन मोहित आसक्त

प्यार की नैया के हैं खेवैया लोग जमीं के

जी लें खुलकर ना जाने कब हो जाए अस्त।


धीरेन्द्र सिंह

15.11.2025

07.48



गुरुवार, 13 नवंबर 2025

ब्रेकअप ?

ब्रेकअप कहां की संस्कृति है

एक्स है कहना प्रगति रीति है

प्यार होकर टूट भी जाता है कहीं

कौन जाने किस जग की नीति है


आकर्षण को समझ लेते जो प्यार

प्यार की यही सबसे बड़ी कुरीति है

लुट गया लूट लिया दिल किसी का

कभी न भूल पाए आत्मा का गीत है


प्रणय का समय संग होते हैं प्रकार

अभिव्यक्ति बदलती वैसी संगति है

आत्मा का आत्मा में विलय हो जाता

समर्पित होती उसी प्रकार मति है


एक से अधिक प्यार संभव हो गया

प्रौद्योगिकी की भी इसमें सहमति है

एक बार प्यार हुआ छूटता कभी नहीं

चाहत की दुनिया में यही सम्मति है।


धीरेन्द्र सिंह

13.11.2025

22.39




बुधवार, 12 नवंबर 2025

हिन्दू संस्कृति

 कभी इधर कभी उधर, दृष्टि से गये उतर

सर्वधर्म समभाव डगर, सृष्टि में दिखे किधर


हिन्दू संस्कृति को हिन्दू हैं कितना जानते

हिंदुत्व का प्रवाह प्रखर कई नहीं जानते

कर्म आकृति हिंदुत्व अखंड भारत का सफर

सर्वधर्म समभाव डगर, सृष्टि में दिखे किधर


धर्म की नहीं बात करें, लोग समझते अपराध

धर्म की परिभाषा गलत, लक्ष्य कुछ रहे साध

हिन्दू राष्ट्र भारत है, इसे बोलने में कांपे अधर

सर्वधर्म समभाव डगर, सृष्टि में दिखे किधर


एक वर्ग भटक रहा जबकि बेजोड़ घटक रहा

सर्वधर्म हो पल्लवित स्वाभाविक हिन्दू राष्ट्र कहा

राष्ट्र लय में सब मिल थिरकें धर्म का करते कदर

सर्वधर्म समभाव डगर, सृष्टि में दिखे किधर।


धीरेन्द्र सिंह

12.11.2025

19.34



मंगलवार, 11 नवंबर 2025

फरीदाबाद

चुपके से हो रहे थे आतंकी आबाद

हंगामा रच रहा था शांत फरीदाबाद


पुस्तकों की बौद्धिकता पर करते बातें

बुद्धिजीवी सोचें अभिशाप कैसे बांटे

डॉक्टरों की टीम का है यह विवाद

हंगामा रच रहा था शांत फरीदाबाद


उच्च शिक्षित का किनसे गलत नाते

कौन वह प्रबुद्ध जिनसे डॉक्टर नाचे

हतप्रभ होकर इन डॉक्टरों पर संवाद

हंगामा रच रहा था शांत फरीदाबाद


उच्च शिक्षितों में भी गंवारपन आगे

कैसे सम्मान के यूँ निर्दोष रहें धागे

एक विश्वास टूटकर किया गंदा निनाद

हंगामा रच रहा था शांत फरीदाबाद।


धीरेन्द्र सिंह

11.1१.2025

20.46



शनिवार, 8 नवंबर 2025

देह और दीप

 देह मंदिर सा लगे है

नेह लगे अति समीप

भावना की हवा बहे

हृदय लौ बन दीप


कल्पनाओं की बजे घंटियां

कामनाओं के भजन गीत

अर्चना थाली सा मन बने

वर्जनाएं मिटें मिल दीप


ओस सा मुख निर्मल

कजरारी आंखों की रीत

गाल डिम्पल गहन गूढ़

चेतना चपल मिल मीत


एक आकार से साकार

देह भक्ति मन प्रीत

साकार में ही संसार

देह ध्येय तन दीप।


धीरेन्द्र सिंह

09.11.2025

11.38




भगवती

 भगवती माँ की नित करे अर्चना

सहमति जग की कृति करे अर्चना

सनातन राह पर अटल चले जो

हिन्दू संस्कृति की होए निज सर्जना


मातृ शक्ति स्वरूपा भारत देश हमारा

सिंह आरूढ़ शस्त्र धारिणी की गर्जना

सर्वधर्म को आश्रय यहां विस्मित है जहां

हिन्दू संस्कृति इतर धर्म की ना करे भर्त्सना


माँ भगवती विविध रूप में सब में समाई

जिसने माँ को पा लिया मील दिव्य अंजना

भगवती की कृपा रहे भक्तों पर फलदायी

नत होकर आत्मा करे माँ भगवती की अर्चना।


धीरेन्द्र सिंह

09.11.2025

08.23

मैं और कविता

 मैं कभी नहीं लिखता

कविता

नहीं है संभव किसी के लिए

लिख पाना कविता,

स्वयं कविता चुनती है

रचनाकार और ढल जाती है

रचनाकार के शब्दों में

बनकर कविता,


जीवन के विभिन्न भाव

छूते हैं मन को

और मस्तिष्क लगता है सोचने

वह भाव,

मन की तरंगें उठती हैं

लहराती हैं

और देती हैं मथ

मनोभावों को

और जग उठती है कविता,


रचनाकार उस भाव तंद्रा में

पिरो देता है

उन भावनाओं को

अपने शब्दों में,

संवर जाती है कविता,


रचनाकार नहीं लिखता

अपने आप को

निर्मित कर किसी भाव को,

ऐसे नहीं लिखी जाती

कविता,

भाव के भंवर जब

बन जाते हैं लहर

शब्दों में लिपट

जाती है कविता संवर।


धीरेन्द्र सिंह

08.11.2025

20.04




शुक्रवार, 7 नवंबर 2025

अर्धरात्रि

अर्धरात्रि हो चली है

और मन

किसी महिला से

चैट करने को आमादा है,

प्रयास मेसेंजर को

खंगाल लिया पूरा

कोई भी ऑनलाइन नहीं,


कामनाएं पुष्पित हो

चाहत की सुगंध

कर रही हैं प्रसारित,

कोई भी ऑनलाइन नहीं

यही तथ्य है

और सुविचारित,


अर्धरात्रि को मन

प्यार की बात करे

यह पुरानी सोच है,

कोई मिले अपने सा

जिससे कह दें

भावनाओं में मोच है,

बड़े कारगर होते हैं

नारीत्व के विवेक धावक

कर देते हैं व्यवस्थित

चुटकियों में

सबकुछ,


एक बार फिर टटोला

मेसेंजर को

कोई नारी ऑनलाइन नहीं,

इसे ही कहते हैं भाग्य

प्रारब्ध के संवाहक यही,

हंसी आ रही है आपको

हम यूँ एकल बह जाएं

इससे अच्छा कि

हम सो जाएं।


धीरेन्द्र सिंह

07.11.2025

23.26



गुरुवार, 6 नवंबर 2025

धुंध

 धुंध और गहरा हो रहा है

जीवन फिर भी

नहीं थमा है,

यह जीवन दृश्य है

व्यक्ति फिर भी

नहीं रमा है,


संबंधों की सर्दियां

ऐंठ रही है उन्मत्त

गर्माहट संघर्षरत है

तापमान संतुलन में,

एक अलाव जल नहीं रहा

सुलग रहा है

जिसका उठता धुआं

धुंध की कर रहा सहायता,


व्यक्ति इन जटिलताओं में

बना रहा पुष्पवाटिका

चहारदीवारी के बीच

और सोच रहा कि

जो खटखटाएगा

प्रवेश पाएगा,

सब कुछ गोपनीय है

पुष्पवाटिका भी

और सुगंध भी,


संबंधों की सर्दियों

गहराता कोहरा

अलाव से उठता धुआं

सब अस्पष्ट सा, अनचीन्हा सा

फिर भी व्यक्ति

हथेलियों में ऊष्मा छुपाए

भित्ति सा खड़ा है

ठिठुरते

एक पहल की

प्रतीक्षा में।


धीरेन्द्र सिंह

07.11.2025

05.22

बुधवार, 5 नवंबर 2025

आवाज

 सुनता हूँ प्रायः

अपने भीतर की आवाज़ें

जो मात्र मेरी ही नहीं

उन अनेक लोगों की है

आवाज

जो गुजरे हैं मेरे हृदय से,


अनेक छूट गए हैं

जीवन राह में,

अनेक शत्रु बन गए हैं 

अनेक तटस्थ भाव में हैं

जो पहले अभिन्न हुआ करते थे,

इनमें से कोई नहीं बोलता

कोई मोबाइल पर नहीं पुकारता

फिर भी

आती है आवाज,


आवाज ?

कोई बोलता नहीं तो

किसकी आवाज ?

कैसी जिह्वा ध्वनि?

यहां उभरा प्रश्न

क्या मात्र जिह्वा ही

माध्यम है ध्वनि का ?


हृदय में अनेक पदचिन्ह

बोलते हैं,

स्मृतियों के झोंके

कर जाते हैं बातें,

अब नहीं सुहाते

जिव्हा के बोल

क्योंकि मिलावट होने लगी है

शब्दों में, अर्थहीन, प्रयोजनहीन

इसलिए सच्ची लगती हैं

आ0ने भीतर की आवाज।


धीरेन्द्र सिंह

05.11.2025

21.40



गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025

धर्मनिरपेक्ष

कभी अनुभव किया है आपने

धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में

धर्म के स्पंदन,

होते हैं ऊर्जावान

नीतिवान

और सृष्टि संचयन में

निमग्न,


कभी देखा है आपने

धर्मों के धर्मपालक को

एक विशिष्ट रंग,

एक विशिष्ट ढंग,

एक अभिनव कार्यप्रणाली,

देते यथोचित उत्तर

यदि पूछे

कोई जिज्ञासू भक्त,


बदल दिए जाते हैं अर्थ

सार्थक अभिव्यक्तियों के,

चुपचाप बढ़ते पदचाप

और जतलाते हैं

वसुधैव कुटुंबकम को

विश्व जीतने का ख्वाब,

धर्म को दृढ़ता से

करना होगा स्थापित

अपनी परिभाषाएं,


अर्थ का अनर्थ न हो

अपने मन से क्यों अर्थ गढ़ो,

रोकता है धर्मनिरपेक्ष विचार,

नींव मजबूत है पर

होनी चाहिए सशक्त दीवार।


धीरेन्द्र सिंह

39.10.2025

19.33

अपने कदम

साथ कोई चलता नहीं, चले अपने कदम

यह है मेरा वह चितेरा, हैं सुंदर सपने वहम


जीवन के अंकगणित में है जोड़ना-घटाना

लक्ष्य की चुनौतियों में प्रयास कष्ट घटाना

समझौतों की स्वीकार्यता कभी खुश तो सहम

यह है मेरा वह चितेरा, हैं सुंदर सपने वहम


यदि बंधे नहीं मानव सहज न जी है पाता

एक भीड़ न हो परिचित जीवन लगे अज्ञाता

अपने को छोड़ सबसे जुड़ा लगे सशक्त कदम

यह है मेरा वह चितेरा, हैं सुंदर सपने वहम


जीने की एक आदत को समझते हैं प्रायः प्यार

कितना चले कोई अगर छोड़ दे अपना पतवार

स्वार्थ अति महीन रूप में जाए पनपाते दहन

यह है मेरा वह चितेरा, हैं सुंदर सपने वहम।


धीरेन्द्र सिंह

30.10.2025

19.25



बुधवार, 29 अक्टूबर 2025

जरूरी है

 सुनो प्यार करने के लिए जानना जरूरी है

सितारे भरे आकाश हेतु जागना जरूरी है

सुलग गयी हृदय में भाव कुछ नई खिली

उस भाव से भी भागना कहो क्या जरूरी है


तुमसे मुझे प्यार है कहना नहीं है दबंगता

प्यार कसकर छुपा लें यह कैसी मजबूरी है

हृदय के स्पंदन कर रहें आपका अभिनंदन

चीख चिल्लाकर कहना प्यार क्या जरूरी है


हाँ जो बंध गए हैं बंधनों में समाज खातिर

ऐसे लोग नहीं मानव चर्चा क्या जरूरी है

व्यक्ति स्वयं के स्पंदनों संग जी ना सके तो

स्वतंत्र व्यक्ति नहीं वह उसकी बात अधूरी है


चंचल नहीं प्रांजल नहीं आदर्शवादिता नहीं

जीवन की सहज कामनाएं भी जरूरी है

सहज व्यक्ति सा सीमाओं संग उड़ रहे हैं

आप संग उड़ें ना उड़ें नहीं यह मजबूरी है।


धीरेन्द्र सिंह

29.10.2025

20.26


मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

एक तुम

 चाहे तो जिंदगी समेट सब विषाद लें

चाहें तो बंदगी आखेट से प्रसाद लें

दर्द, दुख, पीड़ा की चर्चा समाज करे

चाहे तो हदबन्दगी में तुमसे उल्लास लें


व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी, पुरानी बात

प्रौद्योगिकी प्रमाणित जरूरी नहीं साथ लें

प्यार मनकों सा टूट रहा बिखर रहा बिफर

तृष्णा अपनी समझ परे फिर क्यों प्यास लें


चार लोग मिल गए उभर पड़ी वहां चतुराई

रंगराई की अंगड़ाई में तनहाई आजाद लें

तुरपाई की रीति निभाई बौद्धिक लुढ़कन

भौतिक ही यथार्थ का हितार्थ आस्वाद लें


कौन जिए उन्मुक्त घुटन की अनुभूतियाँ

एक तुम जिससे मनीषियों का नाद लें

सहज, शांत, सुरभित मिलने पर तुमसे

और कहीं भटकें तो परिस्थितियां विवाद दें।


धीरेन्द्र सिंह

28.10.2025

22.15


रविवार, 26 अक्टूबर 2025

पदचाप

जब हृदय वाटिका में गूंजे पदचाप तुम्हारे
टहनियां पुष्प की लचक अदाएं दिखलाती
कलियां खिल उठें मंद पवन सुगंधित चले
धमनियों में दौड़ पड़ो अलमस्त सी इठलाती

हृदय की धक-धक की पग लय जुड़ी थाप
सरगमी इतनी तुम कि धुन नई रच जाती
हृदय वाटिका झंकृत होकर झूमने लगता
पदचाप की छुवन अक्सर लगती मदमाती

आत्मा से आत्मा का प्यार अधूरा कथन है
देह से देह परिचय में नवरंग है झूम आती
आत्मिक परिणय की तुम हो जीवन संगिनी
हृदय वाटिका में बेहिचक नेह सी छा जाती।

धीरेन्द्र सिंह
27.10.2025
06.31

रिश्ते

 सूई की तरह चुभते हुए रिश्ते
खोखली मुस्कराहटों के किस्से
किस तरह बीच चलें अपनों के
कुछ तो अपने हों सबके हिस्से

घर, कुनबा वही स्थल पुरखों का
लोग बढ़ते गए लोग कहीं खिसके
खंडहर बन रहा है खानदानी घर
गांव खाली हवा गलियों में सिसके

सब के सब बस गए हैं पकड़ शहर
मिलना-जुलना भी जर्जर किस्म के
रिश्ता स्वार्थ बन गया है खुलकर
रिश्तेदारियां औपचारिक जिस्म के

यह परिवर्तन है स्वाभाविक दोष नहीं
यहां-वहां बिखरे सब अपने हित ले
एक घर में जितने हैं खुश रहें मिलकर
स्वार्थी रिश्तों में जान किस तिलस्म से।

धीरेन्द्र सिंह
26.10.2025
21.38


शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

मन उचटता है

 कल्पनाओं में वही सूरज उगता है

मन उचटता है


याद है प्रातः आठ बजे की नित बातें

ट्रेन दौड़ती स्टेशन छूटता है न यादें

मन बौराया वहीं अक्सर भटकता है

मन उचटता है


कैसे पाऊं फिर वही सुरभित सी राहें

कहां मिलेगी हरदम घेरे रसिक वह बाहें

कभी-कभी तड़पन देता आह उछलता है

मन उचटता है


अब भी बोलता मन है अक्सर भोर में

तुम क्या सुन पाओगी हो तुम शोर में

यादों की टहनी पर नया भोर तरसता है

मन उचटता है।


धीरेन्द्र सिंह

26.10.2025

07.11

पीयूष पांडेय

 शब्दों की थिरकन पर सजा भावना की आंच

पीयूष पांडेय लिखते जग मुस्कराते रहता बांच


भारतीय विज्ञापन का यह गुनगुनाता व्यक्तित्व

सरल शब्दों में प्रचलित कर दिए कई कृतित्व

हिंदी को संवारे विज्ञापन की दुनिया में खांच

पीयूष पांडेय लिखते जग मुस्कराते रहता बांच


हिंदी न उभरती न होती आज ऐसी ही महकती

विज्ञापन की हो कैसी भाषा हिंदी न समझती

जो लिख दिए जो रच दिए अमूल्य सब उवाच

पीयूष पांडेय लिखते जग मुस्कराते रहता बांच


दशकों से हिंदी जगत में पीयूष की निरंतर चर्चा

इतने कम शब्दों में सरल हिंदी का लोकप्रिय चर्खा

आदर, सम्मान, प्रतिष्ठा से हिंदी विज्ञापन दिए साज

पीयूष पांडेय लिखते जग मुस्कराते रहता बांच।


धीरेन्द्र सिंह

26.10.2025

05.41


शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2025

भक्ति भाव

भक्ति में डूबी वह बोलीं

हम कुछ दूरी रखते हैं

मैंने कहा जिसे मन चाहा

हम तो करीबी रखते हैं


धन्यवाद कर प्रणाम इमोजी

बोलीं भाव कदर करते हैं

पढ़कर रहे सोचते  हम

भक्ति किसे सब कहते हैं


उन्होंने कहा करीबी गलत

खुद पर कंट्रोल रखिए

भक्ति कंट्रोल संग हो कैसे

अचल हैं क्या जी, कहिए


भक्ति में अब भी लिंगभेद

पुरुष-स्त्री विभक्त रहिए

मन कहां वश में जानें

साधना और गहन करिए।


धीरेन्द्र सिंह

24.10.2025

18.41

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025

प्रेम और प्यार

  ईश्वर की कामना की जितनी अभिलाषा
 मानवीय प्यार की उतनी ही प्रबल आशा  

मंदिरों के विग्रह भक्ति, आस्था, समर्पण                                       जीव वहां जाता श्रद्धा देती स्नेहिल दर्पण
देवी-देवता से प्यार नहीं प्रेम सबल नाता
मानवीय प्यार की उतनी ही प्रबल आशा

प्रेम अति व्यापक अलौकिक अनुभूति है
प्यार अति सूक्ष्म लौकिक जन रीति है
आत्मसंवेदनाओं का है जो चपल ज्ञाता
मानवीय प्यार की उतनी ही प्रबल आशा

प्यार करते-करते प्रेम भी दीप्त हो जाता
प्रेम करते-करते लीन होना ही हो पाता
मानव से करो प्यार वही है सफल खासा
मानवीय प्यार की उतनी ही प्रबल आशा।

धीरेन्द्र सिंह
23.10.2025
18.56

मंगलवार, 21 अक्टूबर 2025

सामर्थ्य

प्यार कहे बोल दे पर बोल भी नहीं पाए
सामर्थ्य सोया सा लगे जब प्यार हो जाए

हर गगन में चांद की अठखेलियाँ ही लगें
तारों के बीच भी बादल बहेलियां ही लगें
चांदनी की शीतलता हवा को भी भरमाए
सामर्थ्य सोया सा लगे जब प्यार हो जाए

तुम अतीत तुम व्यतीत तुम ही तो मेरे मीत
भावनाएं गुनगुनाती शब्द सज बनते हैं गीत
कौन तुमसे जुड़कर भी मुडकर बहक पाए
सामर्थ्य सोया सा लगे जब प्यार हो जाए

तुम कब एक व्यक्तित्व में समा जानेवाली
तुम एक तरंग हो महत्व की दिया बाती
तुमको सोचे तुमको जिए तुमको ही गाए
सामर्थ्य सोया सा लगे जब प्यार हो जाए।

धीरेन्द्र सिंह
22.10.2025
00.10

सोमवार, 20 अक्टूबर 2025

मझधार

पहले द्वार रंगोली और द्वार श्रृंगार
फिर दिया, पूजन भक्त भक्ति दुलार
लौ की दुनिया सज गई ऊर्जा लेकर
दिया हो सक्रिय निःशब्द देता आधार

कितनी पूजा किसने की ईश्वर जानें
आरती में किसका कितना लयधार
इन बातों से अलग सोचती आराधना
जनमानस का कितना कैसे हो सुधार

अपनी अभिव्यक्ति को पूर्ण कर चुका
लगता कुछ शेष नहीं रुकी वही पुकार
खड़ा हो गया सोचता नव ज्योति लिए
जबतक है जीवन खत्म कहां मझधार।

धीरेन्द्र सिंह
20.10.2025
21.39



रविवार, 19 अक्टूबर 2025

छोटी दीवाली

देहरी पर दिये की झूम रही लौ
प्रहरी घर भर दिये ऊर्जा नव पौ

शुभता भी शक्ति है दिव्य आसक्ति
शुभ्रता मनभाव लिये नव्य युक्ति
ठहरी क्रन्दिनी वंदिनी हस्त भरे जौ
प्रहरी घर भर दिये ऊर्जा नव पौ

छोटी दिवाली की रात्रि दीप पटाखे
ब्रह्मोस्त्र की खेप बुद्धि मीत सखा रे
सीमाएं रहें शांत सुखी ना टेढ़ी भौं
प्रहरी घर भर दिये ऊर्जा नव पौ

मेरे पड़ोसी मुस्लिम घर जलीं लड़ियाँ
निकलें बाहर मिल जलाएं फुलझड़ियाँ
अनेकता में एकता लौ को गुण सौ
प्रहरी घर भर दिये ऊर्जा नव लौ।

धीरेन्द्र सिंह
19.10.2025
21.41




अस्तित्व उदय

उदित होता अस्तित्व
होता हरदम सिंदूरी
उदित गोद में हो
या हो समय की दूरी

प्रसन्नता हो अपरम्पार
द्वार किरण मनधूरि
एक उल्लास मिले खास
एक तलाश हो पूरी

दीये की लौ नर्तन
बर्तन बजते बन मयूरी
दिवस प्रारम्भ ले आशाएं
परिवेश सजा है सिंदूरी

उदित हो जाना जीवन
सज्जित समुचित लोरी
प्यार कहीं आराधना भी
कामना होती तब पूरी।

धीरेन्द्र सिंह
19.10.2025
14.35




शनिवार, 18 अक्टूबर 2025

धनतेरस

सांध्य बेला हो चुकी प्रकाश में बदले बेरस

पूजा-अर्चना घर-घर गूंजे कुहूका धनतेरस


अत्यावश्क हुई खरीद भक्ति भाव अविरल

कथ्यों पर युग बढ़ चला होता भाव विह्वल

आस्था जीवन को मढ़ी हर पीड़ा कर बेबस

पूजा-अर्चना घर-घर गूंजे कुहूका धनतेरस


समरसता की दृष्टि निरंतर होती विकसित

भारत भूमि इसीलिए जग करे आकर्षित

धन-धान्य सुख-वैभव की प्रसारित कर रस

पूजा-अर्चना घर-घर गूंजे कुहूका धनतेरस


दिया लौ द्वार से लेकर  घर के कोने-कोने

हर घर में खुशियां छलकाए नयन-नयन दोने

जो भी कामना आशीष देकर ईश्वर प्रेम बरस

पूजा-अर्चना घर-घर गूंजे कुहूका धनतेरस।


धीरेन्द्र सिंह

18.10.2025

20.06




शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2025

जगमगाते


जगमगाते दीपों की तैयारी है
झालरों में ज्योति अँकवारी है
बाती बनकर दीप में सज जाइए
ज्योतिपुंज प्रबल अति न्यारी है

भींग जाने दो दिया जल में अभी
कुम्हार कौशल आपकी बारी है
केवट चरण पखार पाए मुक्ति द्वार
दीपमालाएं सजें विश्वकारी हैं

स्वच्छ चहक किलके चहारदीवारी
ज्योतिपुंज प्रज्ज्वलन गुणकारी है
तमस दूर हो समझ में होए वृद्धि
उत्सवी परिवेश समृद्धिकारी है

देहरी की प्रथम लौ झूम धाए
दिया लिए प्रकाश चमत्कारी हैं
बाती बन आप दिए से जुडें तो
इससे बड़ा कौन हितकारी है।

धीरेन्द्र सिंह
17.10.20२5
19.35




गुरुवार, 16 अक्टूबर 2025

कुछ नहीं आता

व्यक्ति में बौद्धिक सक्रियता सोचे विद्व ज्ञाता
दिवाली हेतु सफाई में सुने कुछ नहीं आता

हर घर दीप पर्व नाते घर में करे साफ-सफाई
मैंने भी सोचा सहयोग देकर पाऊं खूब बड़ाई
रसोई को खाली करने में श्रमदान का इरादा
सहायिका की मदत की सुना कुछ नहीं आता

कांच के बर्तन घेरे रख दिए थे कई ढंग बर्तन
चादर बिछी थी खिसकी शोर संग किए नर्तन
कुछ कांच टूटा सुना ऐसा सहयोग किसे भाता
सहायिका की मदत की सुना कुछ नहीं आता

पेशेवर सफाई कर्मी लेकर घर पहुंचे संग समान
सीढ़ी अलावा चढ़ने को कुछ मांगे ऊंचा स्थान
झट रिवॉल्विंग चेयर दे बोला सब इससे हो जाता
पेशेवर की थी अस्वीकृति लगा कुछ नहीं आता

शाम के सात बजे दो घंटे से सिर्फ किचन सफाई
तीन बाथरूम अभी पड़े हैं समय दे रहा दुहाई
उत्साह में दर्शाया रसोई व्यवस्थित की जिज्ञासा
कौन सामान कहां रहेगा बोले कुछ नहीं आता

क्लीनिंग पेशेवर लगे बैठा सोचा संगी कविता
घर को रखे व्यवस्थित मात्र गृहिणी की रचिता
सात बजे रहे हैं लगे रसोई में दो सफाई ज्ञाता
इस दीपावली ने दिया संकेत कुछ नहीं आता।

धीरेन्द्र सिंह
16.10.2025
07.03
#स्वरचित
#Poetrycommunity
#kavysahity
#poemoftheday
#poetrylover
#public

सोमवार, 13 अक्टूबर 2025

विकल्पविकल्प

विकल्प जब अनेक हों
संकल्प प्रखर सम्मान रहे
रचनाएं तो मिले बहुत
लाईक, टिप्पणी मांग रहे


आहत

आहत होने के लिए
कोई व्यक्ति
नहीं चाहिए
प्रायः व्यक्ति
होता है आहत
स्वयं से,
कैसे?

संवेदनाओं के संस्कार
परंपराओं के द्वार
बना लेती हैं
अपना कार्ड आधार
संस्कारों का
शिक्षा का, दीक्षा का
और लगती हैं देखने
दृष्टि समाज को
अपने 
संस्कार आधार कार्ड से,

दूसरे का दर्द,
परिस्थिति
न समझ पाना
और हो जाना
नाराज
कुपित
दुखी
होकर आहत,
कभी सोचा
सामने व्यक्ति को
मिली क्या राहत ?
अपनी ही सोचना,
है न!

धीरेन्द्र सिंह
14.10.2025
11.36


रविवार, 12 अक्टूबर 2025

व्यक्तिवादी

व्यक्तिवाचक रचना से बिदक जाते हैं
साहित्य पाठक भी क्यों ठुमक जाते है 

आदर्शवादिता लगे उनकी धरोहर है
कैसे लेखन ऐसे में ना दहक पाते है 

प्रथम पुरुष में लिखना क्या गलत है
बेमतलब का मतलब लहक जाते हैं

चरित्र चाल कर रखने की चीज कहां
जो लिखते हैं चालकर लिख पाते हैं

एक दीवार तक लेखन को जोडनेवालों
जो लिखते हैं उसी भाव महक जाते है 

प्रणय रचना को प्रस्ताव समझना कैसा
क्यों रचना में व्यक्तिवादी झलक पाते हैं

भाव दबाकर लिखें आपातकाल है क्या
साहित्य रचते जो यथार्थ कुहुक जाते हैं।

धीरेन्द्र सिंह
13.10.2025
12.23

शनिवार, 11 अक्टूबर 2025

एक कल्पना

में यदि हूँ कहीं
ढूंढो यहीं कहीं
कह रहा इसलिए
सुन लिया बतकही

मत पूछो मेरा पता
व्योम धरा है ज़मीं
यह स्व उन्माद नहीं
होती सब में कमी

रात्रि प्रहर में सोचना
चाहतों की है नमी
सोचता मन आपको
दिखती नहीं कभी।

धीरेन्द्र सिंह
11.10.202
22.02

स्तब्धता

 प्रेम पगता है मगन मन मेरे
और तुम पढ़ रही मेरी कविता
शब्द में भावनाओं का मंथन
कब समझोगी हो तुम ही रचिता

तुम्हारे स्पंदनों में हूँ मन साधक
और तुम कल्पनाओं की संचिता
एक परिचित नाम ही बन सका
कभी क्या लगता हो तुम वंचिता

प्रणय के पालने में रहा झूल हृदय
तुम्हारी आभा की पाकर दिव्यता
पहल अब और कितना हो कैसे
आओ न मिल रचें कई भव्यता

नई अनुभूतियों पर धुन बने नई
राग तो तुम हो करो आलापबद्धता
तुम हवा सी गुजर जाती हो छूकर
बाद देखी हो क्या मेरी स्तब्धता।

धीरेन्द्र सिंह
11.10.2025
20.41
#स्वरचित
#Poetrycommunity
#kavysahity
#poemoftheday
#poetrylover



तटस्थ

तटस्थ हो घनत्व को सदस्य दीजिए
निजता है पल्लवित राजस्व दीजिए
गुटबंदियां चापलूसी में हैं सन रही
कितने छोड़ रहे साथ महत्व दीजिए

अपने में दम तो बातों का क्या वहम
कारवां में सब एक यह कृतित्व कीजिए
रिश्तेदारी की खुमारी है तब दुश्वारी
जब प्रियजन समूह हैं व्यक्तित्व दीजिए

प्लास्टर लगे उखड़ने किसका प्रभाव है
किसका प्रभुत्व है यह तत्व उलीचिए
कुछ ईंटें सरकी हैं बात हद में ही है
दीवारों की खनक रहे शुभत्व कीजिए

कुछ टूट रहा है कुछ छूट रहा है
क्या कुछ लूट रहा है संयुक्त कीजिए
निर्भीकता से बोलता साहित्य हमेशा
मर्जी आपकी भले अलिप्त कीजिए।

धीरेन्द्र सिंह
10.11.2025
17.16

शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2025

देवनागरी

 एक सदाचार धारक व्यक्ति

अतिभ्रष्ट देश में जन्म ले

वह क्या कर पाएगा

तिनके सा बह जाएगा,

आश्चर्य

काव्य में उभरा

राजनीतिक नारा,

सभ्यता सूख रही

राजनीति ही धारा ;


हिंदी साहित्य भी

क्या राजनीति वादी है

सदाचार गौण लगे

राजनीति हावी है ;


कौन कहे, कौन सुने

अपनी पहचान धुने

समूह राजनीति भरे

मंच भी अभिमान गुने,

करे परिवर्तन

राजनीति करे मर्दन,

हिंदी उदासी है

नई भाषा प्रत्याशी है ;


देवनागरी लेखन की अंतिम पीढ़ी

अदूरदर्शी चिल्लाते हिंदी संवादी

भारतीय संविधान पढ़ लें तो

ज्ञात हो है हिंदी विवादित।


धीरेन्द्र सिंह

10.10.2025

19.19



गुरुवार, 9 अक्टूबर 2025

गमन

गमन


वादियां

यदि प्रतिध्वनि न करें

नादानियाँ

यदि मति चिन्हित न रखें

कौन किसे फिर भाता है

मुड़ अपने घर जाता है


मुनादियाँ

यदि अतिचारी हों

टोलियां

यदि चाटुकारी हों

कौन पालन कर पाता है

मौन चालन कर जाता है


जातियां

यदि पक्षपात करें

नीतियां

यदि उत्पात करें

कौन सहन कर पाता है

मार्ग गमन कर जाता है।


धीरेन्द्र सिंह

10.10.2025

11.50




कोहराम

कोहराम है जीवन आराम कब करें

मुस्कराएं भी ना क्यों यह हद करें 


सब ठीक है ईश्वर की कृपा बनी है

कैसे कहे मन की अपनों में ठनी है

विषाद भरा मन अधर क्षद्म मद भरे

मुस्कराएं भी ना क्यों यह हद करें


अभिभावक, दम्पत्ति भी करें अभिनय

सामाजिक दायरै में दिखावे का विनय

संतान देख परिवेश उसी ओर डग भरें

मुस्कराएं भी ना क्यों यह हद करें


अपवाद कभी भी नियम नहीं होता

मुक्ति कहां देता कलयुग का गोता

वैतरणी कब मिलेगी है जग डरे

मुस्कराएं भी ना क्यों यह हद करें।


धीरेन्द्र सिंह

19.12

09.10.2025



#कोहराम#मुस्कराएं#दम्पत्ति#वैतरणी


बुधवार, 8 अक्टूबर 2025

तृष्णा

आपके व्यक्तित्व में ही अस्तित्व

निजत्व के घनत्व को समझिए

अपनत्व का महत्व ही तो सर्वस्व

सब कुछ स्पष्ट और ना उलझिए


प्रपंच का नहीं मंच भाव जैसे संत

शंख तरंग में भाव संग लिपटिए 

हृदय के स्पंदनों में धुन आपकी

निवेदन प्रणय का उभरा किसलिए


आप ही से क्यों जुड़ा मन बावरा

दायरा वृहद था आपको जी लिए

आप समझें या न समझें समर्पण

अर्पण कर प्रभुत्व को तृष्णा पी लिए।


धीरेन्द्र सिंह

09.10.2025

06.35

मंगलवार, 7 अक्टूबर 2025

मन

 मन की अंगड़ाईयों पर मस्तिष्क का टोल

क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल


तरंगों की चांदनी में प्रीत की रची रागिनी

शब्दों में पिरोकर उनको रच मन स्वामिनी

नर्तन करता मन चाहे बजे प्रखर हो ढोल

क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल


अभिव्यक्त होकर चूक जातीं हैं अभिव्यक्तियाँ

आसक्त होकर भी टूट जाती हैं आसक्तियां

यह चलन अटूट सा लगता कभी बस पोल

क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल


यह भी जाने वह भी माने प्रणय की झंकार

बोल कोई भी ना पाए ध्वनि के मौन तार

कहने-सुनने की उलझन मन का है किल्लोल

क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल।


धीरेन्द्र सिंह

07.10.2025

21.26

#मन#चांदनी#उमड़-घुमड़#प्रणय#किल्लोल

सोमवार, 6 अक्टूबर 2025

अभिनय

 अभिनय


अपूर्णता सुधार में सर्जक बन क्षेत्री

अभिनय हैं करते अभिनेता-अभिनेत्री


हम सब स्वभावतः अभिनय दुकान हैं

जितना अच्छा अभिनय उतना महान है

कामनाएं पूर्ति में सजग प्रयास की नेत्री

अभिनय हैं करते अभिनेता-अभिनेत्री


अब कहाँ सामर्थ्य बिन आवरण बहें

असत्य को सत्य सा प्रतिदिन ही कहें

बौद्धिक हैं विकसित हैं मानवता गोत्री

अभिनय हैं करते अभिनेता-अभिनेत्री


क्षद्म रूप विवशता है जग की स्वीकार्य

स्वार्थ ही प्रबल दिखावा कुशल शिरोधार्य

समाज प्रगतिशील हैं व्यक्ति बंद छतरी

अभिनय हैं करते अभिनेता-अभिनेत्री।


धीरेन्द्र सिंह

07.10.2025

04.31

रविवार, 5 अक्टूबर 2025

आँधियाँ

आँधियाँ


प्रतिदिन दुख-सुख की आंधियां हैं

व्यक्ति तैरता समय की कश्तियाँ हैं

रहा बटोर अपने पल को निरंतर ही

कहीं प्रशंसा तो कहीं फब्तियां हैं


अर्चनाएं टिमटिमाती जुगनुओं सी

कामनाओं की भी तो उपलब्धियां हैं

हौसला से फैसला को फलसफा बना

दार्शनिकों सी उभरतीं सूक्तियाँ हैं


जूझ रहा हवाओं से लौ की तरह

पराजय में ऊर्जा की नियुक्तियां हैं

अपना जीवन रंग रहा बहुरंग सा

रंगहीन हाथ लिए कूंचियाँ है


अर्थ कभी सम्बन्ध तो मिली उपलब्धि

जिंदगी बिखरी इनके दरमियाँ हैं

वही नयन आज भी उदास से हैं

सख्ती बढ़ रही अब कहाँ नर्मियाँ हैं।


धीरेन्द्र सिंह

05.10.2025

16.39



शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2025

तख्तियां

अपनी अभिव्यक्तियों की आसक्तियां हैं

कैसे रोकें कि कई नियुक्तियां हैं

हृदय में किसने कहा है रिक्तियां

अनेक लिए आग्रह तख़्तियाँ है


कई विकल्प लुभाने को हैं आतुर

वश में कर लिए उनके दरमियाँ हैं

कहीं तो ठंढी सांसे ढूंढें सरगम

चलन चहक उठा बढ़ी गर्मियां है


कई चिल्ला रहे बढ़ता हुआ शोर है

जो हैं समर्थ उनकी मनमर्जियाँ है

अलाव हथेलिगों में लेकर चल पड़े

पड़नेवाली गजब की जो सर्दियां है।


धीरेन्द्र सिंह

03.10.2025

14.41



गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

चाहत

चाहता कौन है पता किसको 
धड़कनें सबकी गुनगुनाती हैं
चेहरे सौम्य शांत प्रदर्शित होते
मन के भीतर चलती आंधी है

एक ठहरे हुए तालाब सा स्थिर
जिंदगी तलहटों में कुनकुनाती है
तट पर हलचल की अभिलाषी
लहरें उमड़ने की तो आदी हैं

स्वभाव विपरीत जीना है यातना
जिंदगी यूँ तो सबकी गाती है
निभाव खुद से खुद करे जो
चाहतें वहीं महकती मदमाती हैं।

धीरेन्द्र सिंह
03.10.2025
07.35

सोमवार, 22 सितंबर 2025

 हिंदी के सिपाही - गौतम अदाणी


अदाणी समूह के चेयरमैन गौतम अदाणी दिनांक 22 सितंबर 2025 को एक निजी चैनल पर लाइव थे। आज रुककर अदाणी को सुनने का मन किया इसलिए चैनल नहीं बदला। अंग्रेजी में चार-पांच वाक्य बोलने के बाद अंग्रेजी में बोले गए वाक्यों को अदाणी ने हिंदी में कहा वह भी काव्यात्मक रूप में। यह सुनते ही स्क्रीन पर मेरी आँख ठहर गयी। अदाणी ने फिर अंग्रेजी में कहा और भाव और विचार को काव्यात्मक हिंदी में प्रस्तुत किये। ऐसा चार बार हुआ। आरम्भ से नहीं देख रहा था अचानक चैनल पर टकरा गया था।


सत्यमेव जयते कहकर अदाणी ने अपना संबोधन पूर्ण किया और मैं तत्काल इस अनुभूति को टाइप करने लगा। हिंदी दिवस 14 सितंबर को अपनी महत्ता जतलाते और विभिन्न आयोजन करते पूर्ण हुआ किन्तु इस अवधि में कोई ऐसा व्यक्तित्व नहीं मिला जिसे टाइप करने की अब जैसी आतुरता जागृत हुई हो। अंग्रेजी में बोलनेवाले किसी भी चेयरमैन को अंग्रेजी और फिर काव्य में उसी भाव को दो या अधिकतम चार पंक्तियों में बोलते अदाणी से पहले किसी को नहीं देखा।


क्यों टाइप कर रहा हूँ इस अनोखी घटना को ? एक श्रेष्ठतम धनाढ्य गौतम अदाणी हैं इसलिए ? यह सब नहीं है इस समय विचार में बस हिंदी है। हिंदी यदि अदाणी जैसे चेयरमैन की जिह्वा पर काव्य रूप में बसने लगे तो हिंदी कार्यान्वयन में इतनी तेजी आएगी कि स्वदेशी वस्तुओं पर स्वदेशी भाषा और विशेषकर हिंदी होगी। एक सुखद संकेत मिला और लगा हिंदी अपना स्थान प्राप्त कर भाषा विषयक अपनी गुणवत्ता को प्रमाणित करने में सफल रहेगी। मैंने चेयरमैन गौतम अदाणी के मुख से अपने संबोधन में कई बार हिंदी कविता का उपतोग करने की कल्पना तक नहीं  थी। 


धीरेन्द्र सिंह

22.09.2025

15.37

रविवार, 21 सितंबर 2025

शारदेय नवरात्रि

 आज प्रारंभ है अर्चनाओं का आलम्ब है

शारदेय नवरात्रि यूं मातृशक्ति का दम्भ है


अपनी-अपनी हैं विभिन्न रचित भूमिकाएं

श्रद्धा लिपट माँ चरणों में आस्था को निभाए

नव रात्रि नव रूप माता का निबंध है

शारदेय नवरात्रि यूं मातृशक्ति का दम्भ है


सनातन धर्म जीवन मार्ग सज्जित बतलाएं

नारी का अपमान हो तो कुपित हो लजाएं

नवरात्रि नव दुर्गा आदि शक्ति ही अनुबंध हैं

शारदेय नवरात्रि यूं मातृशक्ति का दम्भ है


माँ का आक्रामक रूप राक्षस संहार के लिए

मनुष्यता में दानवता भला जिएं किसलिए

नारी ही चेतना नारी शक्ति भक्ति आलम्ब है

शारदेय नवरात्रि यूं मातृशक्ति का दम्भ है।


धीरेन्द्र सिंह

22.09.2025

07.54

कहीं भी रहो

 सुनो, मेरी मंजिलों की तुम ही कारवां हो

तुम कहीं भी रहो पर तुम ही ऋतु जवां हो


वह भी क्या दिन थे जब रचे मिल ऋचाएं

तुम भी रहे मौन जुगलबंदी हम कैसे बताएं

मैं निरंतर प्रश्न रहा उत्तर अपेक्षित बयां हो

तुम कहीं भी रहो पर तुम ही ऋतु जवां हो


सर्द अवसर को तुम कर देती थी कैसे उष्मित

अपनी क्या कहूँ सब रहे जाते थे हो विस्मित

श्रम तुम्हारा है या समर्पण रचित रवां हो

तुम कहीं भी रहो पर तुम ही ऋतु जवां हो


वर्तमान भी तुम्हारी निर्मित ही डगर चले

कामनाओं के अब न उठते वह वलबले

सब कुछ पृथक तुमसे फिर भी दर्मियां हो

तुम कहीं भी रहो पर तुम ही ऋतु जवां हो।


धीरेन्द्र सिंह

21.09.2025

22.27

शनिवार, 20 सितंबर 2025

पितृपक्ष

 संस्कार हैं संस्कृति, हैं मन के दर्पण

उन अपने स्वर्गवासियों का है तर्पण


रक्त में व्यक्त में चपल चेतना दग्ध में

शब्द में प्रारब्ध में संवेदना आसक्त में

दैहिक विलगाव पर आत्म आकर्षण

उन अपने स्वर्गवासियों का है तर्पण


पितृपक्ष नाम जिसमें सभी बिछड़े युक्त

देह चली जाए पर लगे आत्मा संयुक्त

भावना की रचना पर हो आत्मा घर्षण

उन अपने स्वर्गवासियों का है तर्पण


मनुष्यता उन अपनों के प्रति है कृतज्ञ

आत्मा उनकी शांत मुक्ति का है यज्ञ

श्रद्धा भक्ति से उनके प्रति है समर्पण

उन अपने स्वर्गवासियों का है तर्पण।


धीरेन्द्र सिंह

21.09.2025

06.40


शुक्रवार, 19 सितंबर 2025

दर्पण

 सत्यस्वरूपा दर्पण मुझे क्या दिखलाएगा

नयन बसी छवि मेरी वही तो जतलाएगा


सृष्टि में बसे हैं भांति रूप लिए जीव

दृष्टि में मेरे वही प्रीति स्वरूपा सजीव

प्रतिबिंबित अन्य को तू ना कर पाएगा

नयन बसी छवि मेरी वही तो जतलाएगा


मानता हूँ भाव सभी निरखि करें अर्पण

जीवन अनिवार्यता तू भी है एक दर्पण

क्या इस आवश्यकता पर तू इतराएगा

नयन बसी छवि मेरी वही तो जतलाएगा


हो विषाद मन में रेंगता लगे है मन

दर्पण में देखूं तो तितली रंग गहन

अगन इस मृदुल को तू कैसे छकाएगा

नयन बसी छवि मेरी वही तो जतलाएगा।


धीरेन्द्र सिंह

29.09.20२5

09.10




मात्र प्रकृति नहीं

मात्र प्रकृति नहीं


सूर्य आजकल निकलता नहीं

फिर भी लग रहा तपिश है

बदलितां भी ढक सूर्य परेशान

बेअसर लगे बादल मजलिस है


सितंबर का माह हो रही वर्षा

यह क्या प्रयोग वर्ष पचीस है

जल प्रवाह तोड़ रहा अवरोध

दौड़ पड़े वहां खबरनवीस हैं


बूंदें बरसाकर बहुत खुश बदली

किनारों पर कटाव आशीष है

बांध लिए घर तट निरखने

धराशायी हुए कितने अजीज हैं


सलवटों में सिकुड़ा शहर कैसे

सूरज तपिश संग आतिश है

बदलियां बरस रहीं गरज कर

सूर्य बदली संयुक्त माचिस है।


धीरेन्द्र सिंह

20.09.2025

06.38






बुधवार, 17 सितंबर 2025

जिसकी लाठी उसकी भैंस

 तथ्य कटोरे में

सत्य असमंजस में

झूठ दिख रहा प्रखर

दृष्टि ढंके अंजन में


समय को कैसे रहे ऐंठ

जिसकी लाठी उसकी भैंस


सीढियां लगी ऊंची-ऊंची

झाड़ू सक्रिय है जाले में

कई प्रयास उपद्रव करते

कहते आ जा पाले मैं 


कहां-कहां हठकौशल पैठ

जिसकी लाठी उसकी भैंस


शास्त्र को इतना मुखर किए

शस्त्र से नाता कब छूट गया

विश्व शस्त्र की गूंज ले जगा

शास्त्र जुड़ी आशा लूट गया


फिर उभरे शस्त्र अपनाते तैश

जिसकी लाठी उसकी भैंस।


धीरेन्द्र सिंह

17.09.2025

18.56





मंगलवार, 16 सितंबर 2025

कौन कहे

 सत्य के उजियाला में सब स्पष्ट दिखे

तथ्य बहुत पैना है आखिर कौन कहे


सुविधाभोगी हो जाती अभावग्रस्त पीढ़ी

युग करता प्रयास से संवर्धन बनकर सीढ़ी 

शीर्ष आत्मविश्वास से तथ्य निरंतर जो बहे

तथ्य बहुत पैना है आखिर कौन कहे


बोल को बिन तौल धौल का चलन किल्लोल

मोल को गिन खौल बकौल धवल सुडौल

रचनाएं नित नवीन फिर भी संरचनाएं ढहे

तथ्य बहुत पैना है आखिर कौन कहे


रच रहा नींव में है कौन मकड़जाल

और उठते कदम कई क्यों हुए बेताल

विरोध के हैं क्षेत्र सजग और ना सहे

तथ्य बहुत पैना है आखिर कौन कहे।


धीरेन्द्र सिंह

17.09.2025

04.43



रविवार, 14 सितंबर 2025

कहकहे

 दुनिया भी है सहमत हम ही ना कहें

बिना विवाह बिना साथ रहे कहकहे


भावनाओं का अबाधित आदान-प्रदान

समझदार ही मिलें नहीं हैं यहां नादान

नवजीवन नवसुविधाएँ तपिश क्यों सहे

बिन विवाह बिन साथ रहे कहकहे


जीवन ऑनलाइन है मोबाइल धड़कने

जीवंत जो है जिए क्यों भला अनमने

प्रचंड वेगों से अनुकूल चुनकर बहे

बिन विवाह बिन साथ रहे कहकहे


आत्मिक उत्थान का यह युग बिहान

हर समस्या का है ऑनलाइन निदान

जिनदगी जो जीता पूछता न फलसफे

बिन विवाह बिन साथ रहे कहकहे।


धीरेन्द्र सिंह

15.09.2025

05.02


शनिवार, 13 सितंबर 2025

हिंदी-हिंदी-हिंदी

 हिंदी-हिंदी-हिंदी तेरी क्या है जिज्ञासा

बोली 14 सितंबर है कहां है राजभाषा


संविधान कहता हिंदी संघ की राजभाषा

यथार्थ है कहता राजभाषा बनी तमाशा

हिंदी दिवस 14 सितंबर उभरी लिए आशा

बोली 14 सितंबर है कहाँ है राजभाषा


प्रौद्योगिकी की भाषा आधिकारिक अंग्रेजी

न्यायालय, कार्यलयों के मूल लेख अंग्रेजी

राजभाषा हिंदी खड़ी लिए कई जिज्ञासा

बोली 14 सितंबर है कहाँ है राजभाषा


विभिन्न हिंदी मंच की प्रतिवर्ष की नौटंकी

हिंदी सर्वत्र होगी यही है जोश प्रण नक्की

महाराष्ट्र, दक्षिण राज्य पीटें भाषा ढोल-ताशा

बोली 14 सितंबर है कहाँ है राजभाषा।


धीरेन्द्र सिंह

13.09.2025

16.16


शुक्रवार, 12 सितंबर 2025

निरर्थक टिप्पणीकार

 सुनिए जी सुनिए

इसे भी तो गुनिए

इस समूह में सरकार

होता इमोजी का व्यवहार


रोज उनीदे आते हैं

इमोजी टिप्पणी चिपकाते हैं

पोस्ट को क्यों पढ़ना

बस हाजिरी लगाते हैं


ओ इमोजी के चित्रकार

लिखने से क्यों घबड़ाते हैं

पोस्ट नहीं पढ़ना तो ठीक

रोज इमोजी क्यों चिपकाते हैं


शब्द भाव से अगर अरुचि

पोस्ट अगर नहीं पढ़ पाते हैं

तो क्यों आते पोस्ट पर जी

नकारात्मकता फैलाते हैं


देखादेखी अन्य बने हमराही

लिखना छोड़ इमोजी दिखाते हैं

लिखने-पढ़ने में यदि पैदल

इमोजी से क्या जतलाते है


हिंदी के प्रति है दुर्व्यवहार

लेखन संग हिमोजी भाते है 

मात्र इमोजी से हिंदी दब रही

ऐसे हिंदी विरोधी क्यों आते हैं।


धीरेन्द्र सिंह

13.09.2025

07.52




गुरुवार, 11 सितंबर 2025

तुम जुड़ो

 हम ऐसे बंधनों को उकेर कर जिएं

मेरा हृदय बनो तुम जुड़ो बन प्रिए


कामनाएं पढ़ तुमको कुलबुलाती हैं

अपेक्षाएं भाव मृदुल संग बुलाती हैं

जो जँच रहा बिन उसके कैसे जिएं

मेरा हृदय बनो तुम जुड़ो बन प्रिए


आसक्ति की बाती पढ़ तुमको जल उठी

नई रोशनी जली चिंगारियां मचल उठी

एक तपिश भरी कशिश बवंडर लिए हिए

मेरा हृदय बनो तुम जुडो बन प्रिए


कोई न देखता कोई न सोचता अब है

दूरियां भी व्यक्ति मिलता अब कब है

फिर भी मिलन चलन लोग ऐसे जिएं

मेरा हृदय बनो तुम जुड़ो बन प्रिए।


धीरेन्द्र सिंह

11.09.2025

23.08

रुबिका लियाकत

 हिंदी चैनल पत्रकारिता की शराफत

प्रत्यक्ष लगता, हैं रुबिका लियाकत


प्रथम चर्चा पर रखतीं पूर्ण नियंत्रण

पैनल वक्ता को देती क्रमशःनिमंत्रण

कुछ भी बोल चलें होती न हिमाकत

प्रत्यक्ष लगता, हैं रुबिका लियाकत


आकर्षक वेशभूषा बड़ी गोल बिंदी

दमकता भाव चमकती लगे हिंदी

इतनी प्रखर पत्रकारिता की सियासत

प्रत्यक्ष लगता, हैं रुबिका लियाकत


बिना किसी दबाव बिना किसी पक्ष

चर्चा का जो विषय वही होता लक्ष्य

अध्ययन, शोध की बौद्धिक नज़ाकत

प्रत्यक्ष लगता, हैं रुबिका लियाकत।


धीरेन्द्र सिंह

12.09.2025

17.43




बुधवार, 10 सितंबर 2025

श्रेष्ठ रचनाकार

 पुस्तक प्रकाशन की आवश्यकता क्या है

प्रौद्योगिकी जब स्पष्ट कार्य करने लगी है

कश्मीर और बंगाल को पढ़ पाते भी कितना

विवेक अग्निहोत्री प्रतिभा जो कहने लगी है


गहन शोध कर सत्य कथ्य को खंगालकर

पटकथा, अभिनय, संवाद लेंस जड़ी है

निर्देशन से अभिनय सहज होकर जागृत

पुस्तकों की बातें स्पष्ट अब स्क्रीन चढ़ी हैं


हिंदी के श्रेष्ठ रचनाकार हैं विवेक अग्निहोत्री

दग्ध कोयला भी हथेली पर ठुमकने लगी है

निर्भीकता से इतिहास सजीव करें प्रस्तुत

पुस्तकें अभिव्यक्तियों में पिछड़ने लगी है।


धीरेन्द्र सिंह

10.09.2025

17.56



मंगलवार, 9 सितंबर 2025

गीत सावनी

तृषित अधर है लोग किधर हैं
ऐसा क्या जो तितर-बीतर है
मेघा को बरसाओ न
गीत सावनी गाओ न

अगड़म बगड़म कैसा तिकड़म
गली-गली कस्बा और शहरम
मेधा और जगाओ न
गीत सावनी गाओ न

हाथ कहां, अंगुलियां है गुदगुदाती
लक्ष्य भ्रमित, पर हैं पथ बतलाती
लक्ष्य को जगाओ न
गीत सावनी गाओ न

वृंदगान का पहर उभर बौराए
धुन उठ रही शब्द कौन रचाए
सरगमी गीत बनाओ न
गीत सावनी गाओ न।

धीरेन्द्र सिंह
09.09.2025
18.28






बुधवार, 3 सितंबर 2025

आओ मिलो

सब टूट रहे बनाने को अपनी पहचान
जो भीड़ संग चलता वही चतुर सुजान

हिंदी जगत में अब नित नए बनते मंच
मौलिकता के नाम पर करें हिंदी पर तंज
क्यों टूटकर बताना चाहें स्वयं को महान
जो भीड़ संग चलता वही चतुर सुजान

कुल पचास अधिकतम हिंदी रचनाकार
अनेक समूह में इन्हीं की है जारी झंकार
कुछ कॉपी पेस्ट कर करें हिंदी का सम्मान
जो भीड़ संग चलता वही चतुर सुजान

आओ मिलो ना ऐसे टूटकर रहो बिखरते
चिंतन घर्षण दर्पण से मूल लेखन निखरते
अधिक्यम दस विशाल समूह ही लगें निदान
जो भीड़ संग चलता वही चतुर सुजान।

धीरेन्द्र सिंह
03.09.2025
18.49

मंगलवार, 2 सितंबर 2025

अभियुक्त

 अभियुक्त


समूह में होकर भी समूह से ना मैं संयुक्त

जुड़ाव भूलकर कह उठे मुझे अभियुक्त


हिंदी जगत के जंगल का हूँ एकल राही

दायित्व भाषा साहित्य का उसका संवाही

स्व विवेक ने मुझे स्वकर्म हेतु किया नियुक्त

जुड़ाव भूलकर कह उठे मुझे अभिभूत


आग्रह था, मंच नाम रचना शीर्षक लिखें

छवि अपनी भी लगाएं, भूल रचना हदें

भाषा साहित्य संवरण में क्या यह उपयुक्त

जुड़ाव भूलकर कह उठे मुझे अभियुक्त


जरा सी बात पर हिंदी लगा है तिलमिलाई

त्यजन कर बढ़ा वहां कुछ कहें है ढिठाई

हिंदी विधाओं का संवर्धन करें अब संयुक्त

जुड़ाव भूलकर कह उठे मुझे अभियुक्त।


धीरेन्द्र सिंह

02.09.2025

18.31



सोमवार, 1 सितंबर 2025

रात बहेलिया

 रात बहेलिया बनकर

अपना काला जाल

फेंक रही है

अति विस्तृत

अति महत्वाकांछी,

चांदनी नहीं आ रही

पकड़ में

जाल घूम रहा है

कुत्तों से बचते-बचाते

भौंकते झपटते हैं

जाल पर,


रात अभी तेजी से

दौड़ती गुजरी है

मेरे पास से

और में उठ बैठा

रात्रि के एक बजे,

चमगादड़ अलबत्ता

कर देते हैं उत्सुक

जाल को

और बहेलिया रात

लपक दौड़ती है

चमगादड़ में ढूंढने

चांदनी,


सन्नाटा वादियों की

गहराई से गहन है

सडकें लग रही है

खूबसूरत

दूर-दूर तक,

थकी निढाल उनीदी,

बहेलिया सम्भालस जाल

चार रहा है पकड़ना

चांदनी,


मुझे क्या

नींद आ रही है,

बौराया बहेलिया

दौड़ाता भागता रहेगा

भोर तक,

चांदनी ? फिर चांदनी कहां,

सोते हैं।


धीरेन्द्र सिंह

02.09.2025

01.05






रविवार, 31 अगस्त 2025

आएंगे

 रोज ऐसे अगर आएंगे

हम बेपनाह संवर जाएंगे

मुझे दिखती है जिंदगी

बंदगी में उमर बिताएंगे


आने का है कई तरीका

सलीका भी बुदबुदाएँगे

अदाओं की देख आदत

उम्मीदगी का असर पाएंगे


आती है भोर किरणें 

उसमें ही नजर आएंगे

किरणों पर जीवन आश्रित

आनंदिगी से भर जाएंगे


सुबह राह तकती आंखें

वह आकर गुनगुनाएंगे

रच जाती नित कविता

पढ़ इसको मुस्कराएंगे।


धीरेन्द्र सिंह

31.08.2025

19 26





शनिवार, 30 अगस्त 2025

चल बैरागी

 संकुचित मर्यादाएं

दबंग संस्कार

व्यथित मनोकामनाएं

भूसकल त्यौहार


हर किसी का बाड़ा

लुकछुप व्यवहार

किसका किसपर उधार

कहां कब अख्तियार


सब जिएं ऐसे ही

जीवन लौ को दे बयार

सत्य उभरता ही कहाँ

सत्यवादी यह संसार


अकुलाहट विश्राम चाहे

सुखकर गोद की दरकार

चल बैरागी ठौर वही

जहां चिंगारियों का चटकार।


धीरेन्द्र सिंह

31.08.2025

06.31

शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

कर्म का फल

 कर्म अब धर्म, अर्थ, भाषा आधारित

कर्म का फल प्रश्नांकित है, विचारित


सत्कर्म है संबंधित समाज, देश नियम

कर्म व्यक्तिजनित हतप्रभ अधिनियम

पाप-पुण्य समायाधीन जग में संचारित

कर्म का फल प्रश्नांकित है, विचारित


जैसा कर्म वैसा फल प्रबुद्ध समाज का

भ्रष्टाचार जहां वहां परिणाम गजब का

मानवता सृजित निरंतर विकास पगधारित

कर्म का फल प्रश्नांकित है, विचारित


कलयुग का नाम ले कर्मधर्म कहें कंपन

मानवयुग उलझन में हो कहां समंजन

सब चले राह चले बांह छाहँ ना निर्धारित

कर्म का फल प्रश्नांकित है, विचारित।


धीरेन्द्र सिंह

29.08.2025

13.39







गुरुवार, 28 अगस्त 2025

अधर आंगन

 अधर के आंगन में अनखिले कई शब्द

असर की चाहत में सिलसिले कई स्तब्ध


नयन की गगरी से भाव तरल कभी गरल

अगन की चिंगारियां हवा संग रही बहल

अधर आंगन में चाहत जैसे छुईमुई निबद्ध

असर की चाहत में सिलसिले कई स्तब्ध


चल पड़े भाव राह उलझा जो संग बहेलिया

खिल पड़े घाव आह सुलझा दी तंग डोरियां

कुछ भ्रम भी उभरते हैं जैसे अलगनी प्रारब्ध

असर की चाहत में सिलसिले कई स्तब्ध


अधर गुप्त कंपन समंजन में पाए भंजन

आंगन हवा बहे प्रयास किमनरूप प्रबंधन

आत्मिक ऊर्जा लहक लपक छुई आबद्ध

असर की चाहत में सिलसिले कई स्तब्ध।


धीरेन्द्र सिंह

28.08.2025

18.3


बुधवार, 27 अगस्त 2025

पधारे मेरे घर

 प्रगति सकल चिंतन हो एक सामाजिक गणवेश

ऐसी बोली बोल रहे हैं पधारे मेरे घर श्री गणेश


सज्जा मनोभाव की करने का है यह एक प्रयास

गौरव है प्राप्त होता श्री गणेश करें गृह निवास

दीवारों से पूछिए कैसा हो जाता है अद्भुत परिवेश

ऐसी बोली बोल रहे हैं पधारे मेरे घर श्री गणेश


अपनी अनुभूतियों का अब और ना करूँ बखान

गणेशोत्सव परंपरा के सृजनकर्ता हैं अति महान

श्री गणेश इस अवधि में देते आशीष शक्ति विशेष

ऐसी बोली बोल रहे हैं पधारे मेरे घर श्री गणेश


करबद्ध खड़ा हूँ वचनबद्ध आबद्ध स्वयं से सम्बद्ध

गणपति विराजे हैं तो भाव से हूँ आपूरित निबद्ध

आपका भी मंगल हो दंगल अब जीवन का संदेश

ऐसी बोली बोल रहे हैं पधारे मेरे घर श्री गणेश🙏🏻


धीरेन्द्र सिंह

27.08.2025

16.28

सोमवार, 25 अगस्त 2025

गणेश

 हर गली हर सड़क हर बिल्डिंग लिए एक भेष

आ गए हैं मुंबई की धड़कन, ऊर्जा लिए गणेश


अति विशाल अति भव्य झांकिया समय संभव

अति विशाल महानगरी देखता न कभी पराभव

एक दिवसीय, दस दिवसीय अर्चना अति विशेष

आ गए हैं मुंबई की धड़कन, ऊर्जा लिए गणेश


मुम्बई, नवी मुंबई अब तीसरी आ रही है मुम्बई

विस्तार है स्वीकार है सत्कार है हर कल्पना नई

गणपति बप्पा में है डूबा महाराष्ट्र का पूर्ण परिवेश

आ गए हैं मुंबई की धड़कन, ऊर्जा लिए गणेश


अपने घर में पधारे गणेश जी की प्रथम अर्चना

फिर मुंबई में भ्रमण कर रात्रिभर गणेश कल्पना

वक्रतुंड महाकाय का आशीष करें निर्मूलन क्लेश

आ गए हैं मुंबई की धड़कन, ऊर्जा लिए गणेश।


धीरेन्द्र सिंह

26.08.2025

11.46

दौर के दौड़

 दौर के दौड़ में हैं थक रहे पाँव

गौर से तौर देखे कहाँ तेरा गांव


एक जगत देखूं है ज्ञानी अभिमानी

एक जगत निर्मल निर्मोही जग जानी

जिससे भी पता पूछूं ना जानें ठाँव

गौर से तौर देखे कहाँ तेरा गांव


वह जो पुकार हृदय में रही गूँज

उभरते भाव रहे कामना को पूज

और कितना दौड़ना कहां है छांव

गौर से तौर देखे कहां तेरा गांव


पथ भी अनेक विभिन्न रंग के राही

हर पथ गूंजता करता तेरी वाहवाही

ओ चपल तू छलक ललक दे दांय

गौर से तौर देखे कहां तेरा गांव।


धीरेन्द्र सिंह

25.08.2025

21.00

शनिवार, 23 अगस्त 2025

आध्यात्मिक

अस्वाभिक परिवेश में बुलाया ना करो

आध्यात्मिक हो यह दिखावा ना करो


माना कि स्वयं को हो करते अभिव्यक्त

पर यह तो मानो हर आत्मा यहां है भक्त

धर्म के भाव छांव संग गहराया ना करो

आध्यात्मिक हो यह दिखावा ना करो


आसक्त है मन तुमसे जहां गहरी वादियां

उन्मुक्त तपन में सघन विचरती किलकरियाँ

अनुगूंज अपने मन का छुपाया ना करो

आध्यात्मिक हो यह दिखावा ना करो


यह तन सर्वप्रथम है आराधना का स्थल

तन जीर्ण-शीर्ण ना हो करें प्रयास प्रतिपल

आसक्ति-भक्ति-मुक्ति जतलाया ना करो

आध्यात्मिक हो यह दिखावा ना करो


चिकने चेहरे निर्मल मुस्कान लिए प्रेमगान

उल्लसित उन्मुक्त प्यार ही में किए ध्यान

यही आध्यात्मिक यह झुठलाया ना करो

आध्यात्मिक हो यह दिखावा ना करो।


धीरेन्द्र सिंह

24.08.2025

08.42

मर्द

 सबकी अपनी सीमाएं सबके अपने दर्द

अपनी श्रेष्ठता निर्मित करना क्या है मर्द


आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक परिवेश

इन तीनों से होता निर्मित मानव का भेष

पार्श्वभूमि समझे बिना निकालते हैं अर्थ७

अपनी श्रेष्ठता निर्मित करना क्या है मर्द


हर व्यक्ति चाणक्य है संचित अनुभव ज्ञान०

एक स्थिति में कोई शांत कोई लिए म्यान

आक्रामकता पौरुषता सौम्यता क्या सर्द

अपनी श्रेष्ठता निर्मित करना क्या है मर्द


व्यक्ति परखना पुस्तक की समीक्षा जैसे

बाहर से जो दिख रहा क्या भीतर वैसे

क्षद्म रूप के चलन में रूप आडंबर तर्क

अपनी श्रेष्ठता निर्मित करना क्या है मर्द।


धीरेन्द्र सिंह

23.08.2025

16.14

गुरुवार, 21 अगस्त 2025

छनाछन

 भूल जाइए तन मात्र रहे जागृत मन

प्रतिध्वनि तब उभरेगी छन छनाछन


काया की माया में है धूप कहीं छाया

मन से जो जीता वह जग जीत पाया

आत्मचेतना है सुरभित सुंदर अभिगम

प्रतिध्वनि तब उभरेगी छन छनाछन


युक्तियों से रिक्तियों को कौन भरपाया

आसक्तियों की भित्ति पर चित्रित मोहमाया

थम जाएं वहीं जहां अटके मुक्त मन

प्रतिध्वनि तब उभरेगी छन छनाछन


पट्टे में बंधे श्वान से लेकर हैं चलते मन

बँध जाना जीवन में न कहे धरती गगन

खोलकर यह बंधन अपने में हों मगन

प्रतिध्वनि तब उभरेगी छन छनाछन।


धीरेन्द्र सिंह

22.08.2025

07.48




सलवटें

सलवटें नहीं होती
सिर्फ बिछी चादर में
व्यक्तित्व भी होता है भरा
असंख्य सलवटों से
कुछ चीन्हे कुछ अनचीन्हे,

नित हटाई जाती है
सलवटें चादर की
पर नही हटाता कोई
व्यक्तित्व की सलवटें
प्रयास जाते हैं थक,

कैसे बना जाए
विराटमना
निर्मलमना,
घेरे जग का कोहरा घना,
आओ छू लो
मन मेरा, मैं तेरा
बन चितेरा,

ना
प्यार नहीं आशय
प्यार तो है हल्का भाव
भाव है आत्म मिलन,
सलवटें प्यार से 
मिटती नहीं,
आत्मा जब आत्मा से
मिलती है
चादर व्यक्तित्व की
खिंचती है
तो हो जाता है
आत्मबोध,

आओ मिलकर
व्यक्तित्व चादर का
खिंचाव करें
संयुक्त खिलकर
सलवट रहित व्यक्तित्व का
निभाव करें।

धीरेन्द्र सिंह
21.08.2025
13.56



मंगलवार, 19 अगस्त 2025

मुम्बई वर्षा

 मुम्बई में 

हो रही चार दिनों से

लगातार बरसात

और मीडिया बोल रहा

मुम्बई जल से परेशान,

मीडिया यह नहीं

बता रहा है कि

कुलाबा से महालक्ष्मी मंदिर

बरसात से अप्रभावित है

क्योंकि रहते हैं 

इन्हीं क्षेत्र में 

अति प्रतिभाशाली,

बॉलीवुड प्रतिभा नहीं

मात्र अभिनय कौशल है,

करोड़ों के फ्लैट

मुंबई की आम बात है,


नहीं करता मीडिया

नवी मुंबई की बात

जहां भीषण वर्षा में भी

जलरहित सड़कें हैं,

एक अपूर्ण जानकारी

कर रहा प्रदान मीडिया,

जिसकी विवशता है

टीआरपी

अति प्रतिभाशाली

और नवी मुंबई भी

सुरक्षित है

पीं पीं।


धीरेन्द्र सिंह

19.08.2025

2क.25 

सोमवार, 18 अगस्त 2025

बरसात

 बहत्तर घंटे से लगातार बरसात

भोर नींद खुली भय के हालात


लग रहा बादल फटा क्रोध जता

बारिश की गर्जना मौन रतजगा

भोर पांच तीस पर दूध का साथ

भोर नींद खुली भय के हालात


विद्यालय, महाविद्यालय बंद आज

जीवन मुम्बई का करे दो-दो हाँथ

मंथर पर जीवन घोर वर्षा का आघात

भोर नींद खुली भय के हालात


लोकल बंद होगी सड़क बन तालाब

दैनिक मजदूर दुखी सब लाजवाब

वर्षों बाद मुम्बई में है वर्षा उत्पात

भोर नींद खुली भय के हालात।


धीरेन्द्र सिंह

19.08.2025

05.57

रविवार, 17 अगस्त 2025

प्रिए

 तुम कहाँ हो लिए व्यथित हृदय

कौन है अब धड़कन बना प्रिए


तृषित अधर नमक चखें समर्थित

बतलाओगी संख्या कितनी व्यथित

अनुराग विस्फोटन को लिए दिए

कौन है अब धड़कन बना प्रिए


वर्ष कई बीत गए हुए हम विलग

न जाने कौन सी जलाई अलख

ईश्वर से प्रार्थना सुखी वह जिएं

कौन है अब धड़कन बना प्रिए


आधार प्यार का मन संचेतना है

प्रमुख मिटाता वह अन्य वेदना है

प्रणय कुछ नहीं कैसे उल्लासपूर्ण जिए

कौन है अब धड़कन बना प्रिए।


धीरेन्द्र सिंह

17.08.2025

22.43


गज़ब

 सुनो में एक हद हूँ

और तुम बेहद

बात इसमें यह भी

मैं बेअदब हूँ

और तुम संग अदब,

है न गज़ब!


हम में विरोधाभास

पर मैं हताश

और तुम आकाश

बात इसमें यह भी

मैं प्रणयवादी हूँ

और तुम व्यवहारवादी

है न गज़ब!


हम में भी यह विकास

तुम दूसरे राज्य

मुझे लगो तुम साम्राज्य

बात इसमें यह भी

मैं लौ दीपक

पर तुम प्रकाश

है न गज़ब!


हम स्पष्ट विरोधाभास

मूल हित संस्कार तोड़ता बेड़ियां

तुम प्रगतिशील भूल पीढियां

बात इसमें यह भी

मैं मात्र आस

और तुम मधुमास

है न गज़ब।


धीरेन्द्र सिंह

17.08.2025

21.06