शनिवार, 31 मई 2025

साहस

 मैं भी चला था दौर में देखा न गौर से

एक दिन भी चाह न छोड़ा मिली और से


अब भी उन्हीं जैसा दिखे तो धड़के दिल

संकोच गति को बांधे मन चीखे आ मिल

मैं अपनी धुन में वह अपने उसी तौर से

एक दिन भी चाह न छोड़ा मिली और से


यह बात नहीं कि वह समझीं न इशारा

एक बार उनकी राह देख मुझको पुकारा

थम गया, संकोच उठा, घबराया कौर से

एक दिन भी चाह न छोड़ा मिली और से


प्यार भी हिम्मत, साहस, शौर्य के जैसा

कदम ही बढ़ ना सके तो पुरुषार्थ कैसा

आज भी वही पल ठहरा हांफते शोर से

एक दिन भी चाह न छोड़ा मिली और से।


धीरेन्द्र सिंह

31.05.2025

17.44



शुक्रवार, 30 मई 2025

बहाना

 सीखा बहुत न सीख पाया वैसे निभाना

ना जब कहना हो तो बनाएं कैसे बहाना


आप अभिनेत्री हैं या जीवन की हैं नेत्री 

एक दुनिया आपकी जिसकी आप हैं क्षेत्री 

शब्द भी है धुन भी आपका रहे तराना

ना जब कहना हो तो बनाएं कैसे बहाना


है ज्ञात कुछ तो गड़बड़ आप कर रहीं

तलाशते रहे न आधार न मिले जमीं

यहां-वहां जहां-तहां भोलेपन में घुमाना

ना जब कहना हो तो बनाएं कैसे बहाना


कुछ तो विशेषता आपमें है ईश्वर प्रदत्त

बातों में आपसा भला है कौन सिद्धहस्त

हारता है पुरुष फिर भी बना रहता दीवाना

ना जब कहना हो तो बनाएं कैसे बहाना।


धीरेन्द्र सिंह

30.05.2025

13.45



बुधवार, 28 मई 2025

मौलिकता

 कविताओं में

शब्द, अभिव्यक्ति का

जितना हो प्रयोग

उतना ही सुंदर

बनते जाता है

साहित्य का सुयोग,

समय संग

व्यक्ति का अभिन्न नाता

दायित्व अंग

समय संग जो निभाता,

रचता वही नव इतिहास

परंपरा के जो अनुयायी

बने रहते समय खास,


लाइक और टिप्पणी ललक

हद से जब जाए छलक

असमान्यता तब जाए झलक

लेखन आ जाए हलक

विचारिए

लेखन आशीष मिला

लेखन को संवारिए,

यही दायित्व है

निज व्यक्तित्व है

नयापन लेखन में पुकारिए,


इस लेखन साधना के

हैं विभिन्न योगी

नित करते रचनाएं

बन अपना ही प्रतियोगी

बिना किसी चाह

बिना किसी छांह

रचते जाते हैं

जो लगा है सत्य

उसीको गाते हैं,


इसकी रचना, उसकी लाईक

उसकी रचना, इसकी लाईक

लेनदेन साहित्य नहीं

लेखन नहीं मंच और माइक,

लेखन साधना है कीजिए

नए शब्द, भाव दीजिए

पुष्प खिलेगा

उडें सुगंध

तितली, भौंरे लपकते

करें पुष्प पर अपना प्रबंध।



धीरेन्द्र सिंह

29.05.2025

10.53


ताल

 आप ऐसे चमकें जैसे अँजोरिया

संवरिया का ताल, कहे गोरिया


मन महकाय के सपन दे बैठी

रात बहकाय के अगन दे ऐंठी

अंखिया जागत, होती जाय भोरिया

संवरिया का ताल, कहे गोरिया


मगन लगे कब खबर नहीं

अगन कहे अब सबर नहीं

तपन सघन लगे चहुँ ओरिया

संवरिया का ताल, कहे गोरिया


इतनी चमक नहीं समझ पाएं

कौन लपक चमक जी हर्षाए

समझ सके ना कोई मजबूरियां

संवरिया का ताल, कहे गोरिया।


धीरेन्द्र सिंह

28.05.2025

17.53



सोमवार, 26 मई 2025

आप

 आज बहुत दिन बाद

नींद खुलते ही

प्रतीत हुआ कि

प्रणय की बदलियां

मन में उमड़-घुमड़

संवेदनाओं को जगा रही हैं,

जग तो जाता हूँ

याद आती हैं

जब आप ऐसे,

जैसे चटकी हो कली

फूल खिला हो जैसे,

जिसकी सुगंध

तन को अधलेटा कर

बंद कर पलकें

करती रहती हैं सुगंधित

आप से जुड़ी कल्पनाओं को,


बदलियां सेमल की रुई सी

कोमल स्पर्श कर

आपकी अंगुलियों सी

निर्मित कर रही हैं

पुलकित झंकार,

व्योम में भी 

बदलियां बूँदभरी

बरसने को तत्पर दिखीं,

मौसम बरसाती हो गया,

बंद पलकें

एक अलौकिक आनंद से

अभिभूत

कल्पनाओं की

घनी बदलियों में

आप संग करता रहा

उन्मुक्त विचरण,


जीवन के दायित्वों ने

कर दिया विवश

खुल गयी पलकें

और बरसाती मौसम में

आज फिर आप

मेरी कविता से लिपट गईं।


धीरेन्द्र सिंह

28.05.2025

06.30



शुक्रवार, 23 मई 2025

चलो

 शक्ति से शौर्य से लुभाते चलो

लोग चलें न चलें भुनाते चलो


प्यार, श्रृंगार, अभिसार से पार

कामनाएं मृदुल भाव की न धार

अपनी चाल हो अन्य में ना ढलो

लोग चले न चलें भुनाते चलो


नारी बिंदिया से उदित होता सूर्य

नारी प्यार ऊर्जा करती है उत्कर्ष

आज नारी हुंकारी हाँथ ना मलो

लोग चले न चलें भुनाते चलो


प्रणय अब लग रहा प्रसंगहीन

कब तक निश्छलता छल अधीन

जन, ज़र, ज़मीन प्रतिकूलता तलो

लोग चले न चलें भुनाते चलो।


धीरेन्द्र सिंह

24.05.2025

10.15


गुरुवार, 22 मई 2025

आप और बारिश

 बरसात आती है

जैसे आती हैं आप

घटाएं आती हैं

जैसे आपकी यादें,

वह तपिश क्षीण हो जाती

जैसे बादलों से ढंका सूर्य

और परिवेश पुलकित हो

बारिश की बूंदों की करें प्रतीक्षा

जैसे मेरे नयन ताकें

आपकी कदमों की आहट,

कभी सोचा है आपने ऐसा ?

ना ही बोलेंगी, सकुचाती,


घटाएं भी तो चुप

अपने में सिमटी

ठहरी रहती हैं स्थिर

धरा को देखती

और मैं सोचता हूँ

कब मेरी दृष्टि समान

देख ली बदलियां आपको

और चुरा लीं

आपकी अदा जैसे

मेरे कुछ प्रश्नों पर

रहती हैं ठहरी मौन

और चली जाती है प्रतीक्षा

अंततः थक कर,


अचानक तेज हवाएं

बिजली का कड़कना

और झूमकर 

बदलियों का बरस जाना

बस आपकी इसी मुद्रा हेतु

पुरुष एक साधक की तरह

रहता है नारी आश्रित

जहां झूमने के पल होते हैं।


धीरेन्द्र सिंह

23.05.2025

09.45