गुरुवार, 22 मई 2025

आप और बारिश

 बरसात आती है

जैसे आती हैं आप

घटाएं आती हैं

जैसे आपकी यादें,

वह तपिश क्षीण हो जाती

जैसे बादलों से ढंका सूर्य

और परिवेश पुलकित हो

बारिश की बूंदों की करें प्रतीक्षा

जैसे मेरे नयन ताकें

आपकी कदमों की आहट,

कभी सोचा है आपने ऐसा ?

ना ही बोलेंगी, सकुचाती,


घटाएं भी तो चुप

अपने में सिमटी

ठहरी रहती हैं स्थिर

धरा को देखती

और मैं सोचता हूँ

कब मेरी दृष्टि समान

देख ली बदलियां आपको

और चुरा लीं

आपकी अदा जैसे

मेरे कुछ प्रश्नों पर

रहती हैं ठहरी मौन

और चली जाती है प्रतीक्षा

अंततः थक कर,


अचानक तेज हवाएं

बिजली का कड़कना

और झूमकर 

बदलियों का बरस जाना

बस आपकी इसी मुद्रा हेतु

पुरुष एक साधक की तरह

रहता है नारी आश्रित

जहां झूमने के पल होते हैं।


धीरेन्द्र सिंह

23.05.2025

09.45


युद्ध

 लिख ही देता हूँ कलम ना थरथराती

नियमावली के अनेक प्रावधान है

मनुष्यता ही मनुष्यता का करे दमन

दर्द व्यंजित धरा का क्या निदान है


प्रेम की बोली या कि अपनापन कहें

प्यार की स्थूलता पर गुमान है

हृदय की समग्रता सूक्तियों में ढलें

जो सीखा है उसी का कद्रदान हैं


कौन अपना कौन पराया पहचानना

अपने ही तो पराजित मान करें

स्थानीय ऊर्जा का करते विलय

कीमतों पर बिक अभिमान करें


संघर्ष हर पग सब संघर्षशील

संघर्ष में युद्ध का कमान चले

घर में अपने बंग ढंग प्रबंध

कैसे कहें इसमें विद्वान ढले


काग चेष्टा बकुल ध्यानं समय

श्वान निद्रा का सम्मान करें

समय के अनुरूप सृष्टि भी चले

राष्ट्रभक्त हैं मिल राष्ट्रगान करें।


धीरेन्द्र सिंह

22.05.2025

16.12



अभ्यास

 चेष्टाएं प्रबलता की सब करें

अनुभवी अभ्यासी ही यूं चलें

अन्य अंधी दौड़ में उलझे कहें

साधक बन क्यों एकलक्षी गलें


जो चमकता दिखे, है अभ्यास

वर्ष कितने गुजरे इसी वलबले

शीघ्रता में कुछ मिला न कभी

गंभीरता जहां क्या करें मनचले


कौन क्या देख रहा स्थान कहां

देख पाना भौगोलिक भाल धरे

एक व्योम पर है कई दृष्टियाँ

व्योम सबको एकसा ना दिखे


प्रेम पर समाज पर खूब लिखे

हर रचना में कुछ नया दिखे

भाव-शब्द मनतार जिसका कसा

अभिव्यक्तियाँ झंकार नव ले खिलें।


धीरेन्द्र सिंह

22.05.2025

12.49



मंगलवार, 20 मई 2025

चाय या तुम

 झुकती लय टहनियां वाष्पित झकोरे

एक चाय सी हो लगती तुम भोरे-भोरे


एक घूंट चाय सा लगता है संदेशा

गर्माहट भरी मिठास अनुराग सुचेता

गले से तन भर झंकृत हो पोरे-पोरे

एक चाय सी हो लगती तुम भोरे-भोरे


अंगुली तप जाए अधर उष्णता दास

चाय रहती तपती करती चेतना उजास

रंगमयी कल्पनाएं संग चाय दौड़े-दौड़े

एक चाय सी हो लगती तुम भोरे-भोरे


हो जिद्दी बारिश, गर्मी हो या सर्दियां

हल्का हुआ विलंब छा देती हो जर्दियाँ

कोई न बीच हमारे चुस्कियां मोरे-मोरे

एक चाय सी हो लगती तुम भोरे-भोरे।


धीरेन्द्र सिंह

21.05.2025

11.01



नारी

 आप मन प्रवाह की तीर हैं

कल्पना प्रत्यंचा अधीर है

स्वप्न गतिशील सुप्त गुंजित

संकल्पना सज्जित प्राचीर है


सौम्यता से सुगमता संवर्धित

उद्गम उल्लिखित पीर है

सौंदर्य को करती परिभाषित

कौन कहता मात्र शरीर हैं


स्वेद को श्वेत कर सहेजती

भेद में प्रभेद लकीर है

सत्य लुप्त कर दिया गया

तथ्य तीक्ष्णता की नीर हैं


विश्व वृत्त की कई क्यारियां

नारियां हीं नित्य वीर हैं

पुरुष एक मचान सदृश रहे

श्रेष्ठता युग्म की तकदीर हैं।


धीरेन्द्र सिंह

20.05.2025

19.46




प्रतीक्षा

 नयन बदरिया पंख पसारे

पाहुन अगवानी को धाए

अकुलाहट से भरी गगरिया

मन छलकत नेह भिगाए


साँसों की गति अव्यवस्थित

स्थिति खुद को अंझुराए

गाय सरीखा उदर भाव है

चाह राह तकते पगुराए


गहन सदीक्षा मगन प्रतीक्षा

अगन द्वार खूब सजाए

युग्म हवन कोमल अगन

हृदय थाप की नई ऋचाएं


संगत भाव मंगत छांव

पंगत में लगते कुम्हलाए

झुंड चिरैया उड़ती हंसती

पाहुन आए लखि बौराए।


धीरेन्द्र सिंह

20.05.2025

16.00



सोमवार, 19 मई 2025

क्या करता

 मन मसोसकर जीवन  है विवशता

कहावत सही, मरता न क्या करता


आप बाग-बाग सी महक-महक गईं

अभिलाषाएं प्यार की मचल लुढ़क गई

अप्रतिम हो व्यक्तित्व मन है कहता

कहावत सही, मरता न क्या करता


आप आब-आब हैं शवाब ताब हैं

सगुन लक्षणी खिला माहताब हैं

मनभावनी हैं भाव झरते ही रहता

कहावत सही, मरता न क्या करता


आप लज्जा-लज्जा हैं प्यार का छज्जा

बच्चा सा दुबका प्यार अरमानी मस्सा

कदम बढ़ चला अब रुके नहीं रुकता

कहावत सही, मरता न क्या करता


आप गर्व-गर्व हैं संगत का पर्व है 

मर्त्य हर प्रयास का भी उत्सर्ग हैं

जीवन प्यासा ले चाहत है सिहरता

कहावत सही, मरता न क्या करता।


धीरेन्द्र सिंह

19.05.2025

18.23