झुकती लय टहनियां वाष्पित झकोरे
एक चाय सी हो लगती तुम भोरे-भोरे
एक घूंट चाय सा लगता है संदेशा
गर्माहट भरी मिठास अनुराग सुचेता
गले से तन भर झंकृत हो पोरे-पोरे
एक चाय सी हो लगती तुम भोरे-भोरे
अंगुली तप जाए अधर उष्णता दास
चाय रहती तपती करती चेतना उजास
रंगमयी कल्पनाएं संग चाय दौड़े-दौड़े
एक चाय सी हो लगती तुम भोरे-भोरे
हो जिद्दी बारिश, गर्मी हो या सर्दियां
हल्का हुआ विलंब छा देती हो जर्दियाँ
कोई न बीच हमारे चुस्कियां मोरे-मोरे
एक चाय सी हो लगती तुम भोरे-भोरे।
धीरेन्द्र सिंह
21.05.2025
11.01