सोमवार, 28 अप्रैल 2025

क्यों है

 समझ ले तुमको कोई 

यह जरूरी क्यों है

लोग देतें रहें सम्मान

यह मजबूरी क्यों है


हृदय संवेदनाएं करें बातें

बातों की जी हजूरी क्यों है

खुद को ढाल लिया खुद में

कहे कोई मगरूरी क्यों है


हर जगह है अकेलापन

भीड़ जरूरी क्यों है

सुगंध तुमसा न मिले

खुश्बू अन्य निगोड़ी क्यों है


सूर्य सा तपकर भी

आग तिजोरी क्यों है

भावनाओं को समझ ना सकें

शब्द मंजूरी क्यों है।


धीरेन्द्र सिंह

28.04.2025

19.48



रविवार, 27 अप्रैल 2025

कविता

 कविता प्रायः

ढूंढ ही लेती है

धुंध से

वह तस्वीर

जो

तुम्हारी साँसों से

होती है निर्मित

और जिसे

पढ़ पाना अन्य के लिए

एक

दुरूह कार्य है,


कल्पनाएं

धुंध से लिपट

कर लेती है

‘ब्लेंड’ खुद को

एक

‘इंडियन मेड स्कॉच’

,की तरह

और

दौड़ पड़ती है

धुंध संग

पाने तुम्हारी तरंग,


बहुत आसान नहीं होता है

तुम तक पहुंचना

या

तुम्हें छू पाना

तुम

जंगल के अनचीन्हे

फूल की तरह

पुष्पित, सुगंधित

और मैं

धुंध से राह 

निर्मित करता

एक

अतिरंगी सोच।


धीरेन्द्र सिंह

27.04.2025

21.24



रहस्यमय

 भोर में

टर्मिनल 3 पर

लगातार अर्धसैनिक

चार-पांच के झुंड में

आते जा रहे थे

और कुछ देर में 

गेट 46-47 की

सभी कुर्सियों पर

अर्धसैनिक ही थे,


कभी नहीं देखा था

इतनी भीड़

और इन कुछ सैनिकों को

यह बातें करते हुए कि

गोली लगी थी

किसे

सुन न सका,

कुछ युवा सैनिक

धूपी चश्मा लगा

अपना वीडियो

बना रहे थे

और कुछ कर रहे थे

बातें वीडियो द्वारा

संभवतः अपनी पत्नी से,


श्रीनगर फ्लाइट की

घोषणा हुई

और

सभी अर्धसैनिक उठे

और बढ़ते गए

जहाज की ओर

आकाश 

कर रहा था स्वागत

और एक बार फिर

लगने लगा आकाश

रहस्यमय।


धीरेन्द्र सिंह

27.04.2025

06.39

टर्मिनल 3, नई दिल्ली

सोमवार, 21 अप्रैल 2025

किसान

 गेहूं की फसल खड़ी

पगडंडी अविराम है

कृषक कहां कृषकाय

खेती तो अभिमान है


फसलें भी हैं चित्रकारी

कृषि तूलिका तमाम हैं

अर्थव्यवस्था अनुरागी यह

खेत की मिट्टी धाम है


गांवों के सुंदर हैं घर

सभी सुविधाएं सकाम हैं

आंगन धूप, हवा आए

छत में जाली आम है


नहीं मोटापा नहीं बीमारी

माटी-मेहनत तान है

खुशहाली में है किसानी

अन्नदाता का सम्मान है।


धीरेन्द्र सिंह

22.04.2025

07.10




रविवार, 20 अप्रैल 2025

एक्सप्रेसवे

 तपती-जलती सड़कें

और उसपर

दौड़ता-भागता परिवहन

सड़क के दोनों ओर

कभी ढूर-ढूर तक भूरी जमीन

तो कभी जंगल और पहाड़,

गंतव्य की ओर

जाना भी कितना कठिन,

टोल प्लाजा

नीले रंगपर

सफेद अक्षरों में 

स्वागत करता और लेन संख्या

बतलाता है,

हर परिवहन

अपना शुल्क चुकाता है;


सड़कें अब

सड़क नहीं हैं

वह या तो उच्च पथ

या एक्सप्रेसवे हैं

जो नहीं गुजरती

शहरों के बीच से

बल्कि गुजर जाती हैं,

न बस्ती जाने

न शहर

परिवहन गतिशील

चारों पहर,

लंबी

बहुत लंबी सड़क

चार लेन की 

क्षितिज में

विलीन होती

प्रतीत होती है,


व्यक्ति भी

अपनी भावनाओं के वाहन पर

अपने लक्ष्य की ओर

चला जा रहा,

कुछ लोग करीब हैं

कुछ रिश्ते से बंधे है

सब लगे साथ चल रहे हैं

पर

साथ का एक भ्रम है,

सबकी राह, गति

अलग है

जीवन पथ

और एक्सप्रेसवे में

समानता है,

न जाने कब कौन

बढ़ जाए ओवरटेक करते

बस फर्क है तो

वाहन की प्रवृत्ति में,


टोल प्लाजा

आते जा रहे हैं

व्यक्ति शुल्क चुकाते

बढ़े जा रहे हैं,

हर जीव का मोल है

जीवन अनमोल है।


धीरेन्द्र सिंह

20.04.2025

12.29

मुम्बई-दिल्ली एक्सप्रेसवे।




शनिवार, 19 अप्रैल 2025

मयेकर वाड़ी

 एक लड़की

हर सुबह

ले चाय का कप

बैठती है पत्थर पर

और बातें करती हैं

पत्तियों से, नारियल वृक्ष से

पूछती हालचाल

डाल की

प्रकृति के भाल की,


एक लड़की

अपनी वाड़ी

घने वृक्ष से कर सुसज्जित

करती है आतिथ्य

अपने गेस्ट हाउस में,

व्यक्तिगत रुचि

भोजन सुरुचि

आतिथ्य श्रेष्ठ

कौन इससे ज्येष्ठ?


घने वृक्ष

सागर तट

एक लड़की संवारे

आतिथ्य पट

अतिरंगी, अविस्मरणीय

सागर के झोंको संग

घने वृक्षों के बी

मराठी, हिंदी, अंग्रेजी में

सुगंधित हवा की तरह

बहती रहती है,

कौन भूल सकता है

ऐसे स्थल को, जहां

आत्मीय सत्कार हो

अतिथि की जयकार हो

नारी गरिमा झंकार हो,


प्रकृति की फुसफुसाहट

सागर लहरों की आहट

पक्षियों की चहचआहट

तो कौन भला

न हो अलबेला

बन प्रकृति मनचला

सागर लहरों संग

न गुनगुनाए

महकती हवाएं

अविस्मरणीय आगिथ्य पाए,


मएकर वाड़ी

अलीबाग, महाराष्ट्र

संचालित

एक नारी द्वारा

यह विज्ञापन नहीं

जो एक बार जाए

चाहे जाना दोबारा।


धीरेन्द्र सिंह

14.04.2025

22.26

गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

वह

 प्रेम मेरा बंध चुका है

वक़्त से वह नुचा है

वह कविताएं पढ़ती है

भाव ना कोई जुदा है


प्रेम कलश एक होता

ब्याह संग क्या जुड़ा है

परिणय दुनियादारी है

अवसर पा व्यक्ति मुड़ा है


दायित्वों का निर्वहन हो

ना लगे कोई लुटा है

कामनाएं निज जगे तो

कौन रिश्तों में मुदा है


क्षद्म जीवन, क्या मिले

अंतर्मन तुड़ा-मुड़ा है

आज भी है याद आती

मुंह मुझसे मुड़ा है।


धीरेन्द्र सिंह

18.04.2025

06.01