शनिवार, 19 अप्रैल 2025

मयेकर वाड़ी

 एक लड़की

हर सुबह

ले चाय का कप

बैठती है पत्थर पर

और बातें करती हैं

पत्तियों से, नारियल वृक्ष से

पूछती हालचाल

डाल की

प्रकृति के भाल की,


एक लड़की

अपनी वाड़ी

घने वृक्ष से कर सुसज्जित

करती है आतिथ्य

अपने गेस्ट हाउस में,

व्यक्तिगत रुचि

भोजन सुरुचि

आतिथ्य श्रेष्ठ

कौन इससे ज्येष्ठ?


घने वृक्ष

सागर तट

एक लड़की संवारे

आतिथ्य पट

अतिरंगी, अविस्मरणीय

सागर के झोंको संग

घने वृक्षों के बी

मराठी, हिंदी, अंग्रेजी में

सुगंधित हवा की तरह

बहती रहती है,

कौन भूल सकता है

ऐसे स्थल को, जहां

आत्मीय सत्कार हो

अतिथि की जयकार हो

नारी गरिमा झंकार हो,


प्रकृति की फुसफुसाहट

सागर लहरों की आहट

पक्षियों की चहचआहट

तो कौन भला

न हो अलबेला

बन प्रकृति मनचला

सागर लहरों संग

न गुनगुनाए

महकती हवाएं

अविस्मरणीय आगिथ्य पाए,


मएकर वाड़ी

अलीबाग, महाराष्ट्र

संचालित

एक नारी द्वारा

यह विज्ञापन नहीं

जो एक बार जाए

चाहे जाना दोबारा।


धीरेन्द्र सिंह

14.04.2025

22.26

गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

वह

 प्रेम मेरा बंध चुका है

वक़्त से वह नुचा है

वह कविताएं पढ़ती है

भाव ना कोई जुदा है


प्रेम कलश एक होता

ब्याह संग क्या जुड़ा है

परिणय दुनियादारी है

अवसर पा व्यक्ति मुड़ा है


दायित्वों का निर्वहन हो

ना लगे कोई लुटा है

कामनाएं निज जगे तो

कौन रिश्तों में मुदा है


क्षद्म जीवन, क्या मिले

अंतर्मन तुड़ा-मुड़ा है

आज भी है याद आती

मुंह मुझसे मुड़ा है।


धीरेन्द्र सिंह

18.04.2025

06.01

बुधवार, 16 अप्रैल 2025

अमृता प्रीतम

 हिंदी साहित्य जगत में

सत्तर, अस्सी का दौर

जहां

लेखक प्रबल थे

प्रतिभाशाली थे समीक्षक 

और था दबदबा

हिंदी साहित्य लेखन का,


अमृता प्रीतम, इमरोज और

साहिर लुधियानवी,

इस तिकड़ी का चला दौर,

अमृता प्रीतम थीं

भारतीय साहित्य की

प्रथम व्यक्तिगत संपर्क (पीआर) प्रणेता,

लेखन के बलबूते पर

समीक्षकों के सहयोग और

मंच की सदुपयोगिता

कर दी चर्चित

अमृता प्रीतम की प्रणय गाथा,


अपने दौर के 

सभी प्रेमियों को

देती करारी मात

अमृता प्रीतम ने

किया स्थापित अपना साम्राज्य,

कुशल लेखन, रुचिकर अभिव्यक्ति

पी आर प्रबंधन,

लोग भूले अपनी शैली

या प्यार बना पहेली, और

सभी प्रेमियों की आदर्श

हो गईं अमृता प्रीतम,


इमरोज और साहिर लुधियानवी

प्रेम के दो चरित्र

मानो किसी उपन्यास के

दो कल्पित पात्र

और अमृता प्रीतम

अजेय प्रेम मल्लिका

जिसे अब भी देश गा रहा है,


प्रबंधन के महाविद्यालयों में

"अमृता प्रीतम प्यार प्रबंधन"

का प्रशिक्षण का हो अनुबंध,

किसी भारतीय रचनाकार का

अमृता सा ना रहा प्रबंध,

साहित्य लेखन में

कुछ ना क्लिष्ट है,

अमृता प्रीतम

इसीलिए विशिष्ट हैं।


धीरेन्द्र सिंह

14.04.2025

20.05



मंगलवार, 15 अप्रैल 2025

मूल्य

 आइए संयुक्त मिल रचना करें

साहित्य में मिल कुछ गहना धरें

आप भी बुनकर तो बेमिसाल हैं

युग्म से रच स्वर्ण अंगना भरें


दस ग्राम स्वर्ण मूल्य एक लाख

खरीदें या बेचें चंचल चाह आंख

और कितने शब्द थकते दुःख हरे

सुनहरा हो रसभरा यूं रचना करें


मूल्य सबका बढ़ रहा, यहां स्थिरता

क्या कहीं कमजोर पड़ती, निर्भरता

हाँथ मेरा बढ़ चुका संग उमंग गहें

हम भी मूल्यवान हों लयबद्ध बहें


समय सबको जोड़ता है तोड़ता है

सजग जो रहें समय भी जोड़ता है

स्वर्णमुद्रा सा सब शब्द दीप्तिभरे

चिंतन, मनन करें संग रंग सुनहरे।


धीरेन्द्र सिंह

16.04.2025

12.22

पूर्णता

 हम नयन के कोर में

देख लेते हैं

झिलमिलाता कहन

करता आलोकित गगन

शांत, सौम्य तकती रहती

आकांक्षाएं

रंगते, गढ़ते अपना चमन,


हल्की उजियारी सी आभा

और कोमल कुहासा

उड़ रहे डैने पसारे

डाल का तो हो इशारा,

लचकती है या रही झूम

कुहासा बाधित करे

कोशिशें अपने में मगन,


मौसम बदलता भाव है

कल्पना की छांव है

मन की एक लंबी सड़क

दौड़ती, मुड़ती, उबड़-खाबड़

सब नयन है देख रहा

और कुहासा

ढाँप लेता दृश्य स्पष्ट

पर रुकी ना दृष्टि

है शोधती अभिनव डाल

मन से मन का हालचाल

पूर्णता के लिए करता चयन।


धीरेन्द्र सिंह

15.04.2025

18.02



सोमवार, 14 अप्रैल 2025

प्रणय

 कौंध जाती नयन पुतली

हृदय में गिरी बिजली

क्या नई यह तान है

या प्रणय निज गान है


उभर आती चाँद सी 

शगुन की याद सी

उदित सूरज सम्मान है

या प्रणय अभिमान है


प्यार कब है बोलता

भाव हृदय बस डोलता

इश्क भोला नादान है

या प्रणय विज्ञान है


आप कहती पर अबोल

चेहरा देता भेद खोल

यह लहर मनधाम है

या प्रणय बस नाम है।


धीरेन्द्र सिंह

14.04.2025

20.58



खूंटा और व्यक्ति

 मन में हैं कितनी

स्वीकृति, अस्वीकृतियाँ और

अभिव्यक्ति भी जीवन में

खूंटों से बंधी है,

व्यक्ति

खूंटे की रस्सी जितनी

नाप सकता है दूरी

यह दुनियादारी है

नहीं मजबूरी,


मजबूर तो बंधनहीन हैं

जिन्हें नहीं मिलते

खूंटे की रस्सी से

बढ़नेवाले आगे,

कोल्हू के बैल की तरह

गतिशीलता देती है

प्रगति की अनुभूति

कौन करे विश्लेषण

इस क्षद्म नीति का?


अकुलाए, बौराए

घूमते गोल-गोल

अपनी परिधि में

स्थापित करते तादात्म्य

उभरती घास से,

टपकती बूंद से,

अपने ही कदमों के

रचित इंद्रधनुष से,

मौलिकता

गढ़ने के बजाय

मान लेना

अब का चलन है,


नही उखाड़ सकते खूंटा

यदि किए प्रयास तो

बोल उठेंगे लोग

संस्कार है

संस्कृति है

सभ्यता है

जिसका आधार है खूंटा,

खूंटे से अलग सोचना

उखड़ जाना है

खूंटे की रस्सी तक

दुनिया, जमाना है।


धीरेन्द्र सिंह

14.04.2025

16.06