शनिवार, 9 नवंबर 2024

छंट रहे

 जाने कितना झूमता ब्रह्मांड है

मस्तिष्क भी तो सूर्यकांत है

ऊर्जाएं अति प्रबल बलिहारी

भावनाएं इसीलिए आक्रांत है


दीख रहा जो दीनता का प्रतीक

पार्श्व में तो व्यक्ति संभ्रांत है

वेदनाएं रहीं लपक ले उछाल

अर्चनाएं सभी होती सुकांत है


लाभ, अहं, प्रसिद्धि लोक गुणगान

सदा सजग भाव तुकांत है

छल रहे, छंट रहे छलकते अपने

मत कहिए हाल यह दुखांत है


क्षद्मवेशी खप जाते सहज पकड़ा जाए

कुरीतियां ही रीतियाँ नव सिद्धांत है

पढ़ चुके कौन जाने कितना असत्य

लिख रहा जो जाने कैसा दृष्टांत है।


धीरेन्द्र सिंह

10.11.2025

02.29


गुरुवार, 7 नवंबर 2024

बना की मस्तियां

 अद्भुत, असाधारण, अनमोल हस्तियां

समझ का ठीहा है बनारस की मस्तियां


अपनी ही धुन के सब अथक राही

हर जगह मस्त शहर, गांव या पाही

यहां बिना न्याय उडें न्याय अर्जियां

समझ का ठीहा है बनारस की मस्तियां


थोड़ी सी ऐंठन थोड़ा सा है चुलबुला

आक्रामक बाहर दिखे भीतर रंग खिला

बातें बतरंग बहे बेरंग गली और बस्तियां

समझ का ठीहा है बनारस की मस्तियां


अबीर-गुलाल सा कमाल भाल हाल

बांकपन में लचक प्रेम की नव ताल

खिलखिलाहट नई आहट चाहतिक चुस्तियाँ

समझ का ठीहा है बनारस की मस्तियां।


धीरेन्द्र सिंह

08.11.2024

12.07

बना सपने

 कहां से कहां तक फैले हसीन अपने

यहां-वहां सारे जहां दिखे बनारसी सपने


दिल की हर खनक दर्शाते हैं बनारसी

जहां कहीं होते यह बन जाते सारथी

समूह संग मिलकर उत्थान लगते जपने

यहां-वहां सारे जहां दिखे बनारसी सपने


व्यक्तित्व भी कृतित्व भी भवितव्य भी

सबका कल्याण चाहें हर्षित हों सभी

जो भी खुलकर मिला गूंजे नाम अंगने

यहां-वहां सारे जहां दिखे बनारसी सपने।


धीरेन्द्र सिंह

08.11.2024

11.57

आहट

 किसी गुनगुनाहट की आहट मिले

वही ताल धमनियां नचाने लगे

संयम की टूटन की आवाज़ें हों

यूं लगे रोम सब चहचहाने लगे


न जाने यह कैसे उठी भावनाएं

अकेले ही क्यों हकलाने लगे

कभी लगे शोषित तो कभी शोषक

खुद से खुद को क्या जतलाने लगे


यादें और कल्पनाएं मंसूबा झुलाएं

अधखुले चाह गहन धाने लगे

यह यादों का इतना तूफानी समंदर

किनारे पर मन ज्योति जगाने लगे


कहां बस गयी कोने मस्तिष्क में

मन वर्चस्वता ध्वज फहराने लगे

ना मिले ना बोले पर यह अपनापन

बंदगी को जिंदगी में उलझाने लगे।


धीरेन्द्र सिंह

08.11.2024

08.47




फफनते

 फफनते हुए दूध

उफनते हुए मन

दोनों को चाहिए

शीतल छींटे,

क्या होगा जब दिखें व्यस्त

आंखें मींचे,


यह परिवेश पूर्ण जोश

लगे हैं आंख मीचे खरगोश

ऐसा क्यों होता है

गौरैया का कहां खोता है,

यह कैसी रचना रीत

अनगढ़ सी हो प्रतीत,


लिखी जा रही हैं असंख्य

नित हिंदी कविताएं,

रचना से बड़ा अपना चेहरा

बड़ा कर दिखाएं,

नई चलन समूहों की 

फफने चेहरा उफने क्रीत; 


हिंदी फ़फ़न रही है

अभिलाषाएं उफन रही है,

गौरैया बिन घोसला

मुंडेर और बालकनी तलाश रही,

किसने चलाई यह भीत

शीतल छींटे रुके किस रीत।


धीरेन्द्र सिंह

07.11.2024

19.21




बुधवार, 6 नवंबर 2024

समूह गुंजन

 हिंदी लेखक समूह

कैसा भाषा व्यूह

अंग्रेजी शब्द प्रयोग

हिंदी रही दुह


कम भाषा ज्ञानी

संस्कृति ओंधे मुहं

अधजल गगरी छलके

तड़पे हिंदी रूह


गुंजन धर्मा अर्धपढ़ा

प्रतियोगिता आह उह

शब्द अनर्थ बतलाएं

चुप वह समूह


हिंदी लेखक गुंजन

अपूर्ण हिंदी ठूह

बेबस सदस्य, मौन

प्रतिकार अशुद्ध, शूर


श्रेष्ठ हैं समूह

गति उनकी गूढ़

अधपके समूह सीखिए

हिंदी श्रेष्ठ आरूढ़।


धीरेन्द्र सिंह

07.11.2024

12.17




मंगलवार, 5 नवंबर 2024

छठ

 आस्था की अर्चना के

पहुंचने से पहले

तालाब तीर बिछ जाती हैं

कामनाएं,

खिंच जाती हैं लकीरें

प्रस्तुत करते स्थल दावे,


शाम और सुबह

होगा अद्भुत दृश्य,

जल और सूर्य का

गहन अलौकिक संबंध

जहां व्रती अर्चनाएं

ही जाएंगी आच्छादित

उगते सूर्य रश्मि को

गठिया लेने प्रसाद सा,


महानगर की कुछ दृष्टि

नहीं छुपा पाएंगी

अपना हतप्रभ कौतुकता,

जल में खड़े होकर

सूर्य उपासना?,

क्यों? कैसे? किसलिए?

हर वर्ष यह तालाब तट

सिखलाता है छठ महात्म्य

कुछ अबूझे लोगों को,


संस्कार, संस्कृति, सद्भावना

अपनी शैली शुभ कामना

तालाब किनारे की तप साधना

लेकर भौगोलिक विस्तार

छठ का कर रही प्रसार

रवि जल का कलकल

आस्था का यह अद्भुत बल,


कवि सदियों से लिखते आ रहे

चाँद का जल पर प्रभाव,

क्यों नहीं लिखते उन्मुक्त

जल का सूर्य से यह निभाव।


धीरेन्द्र सिंह

05.11.2024

15.58