सोमवार, 5 फ़रवरी 2024

चाहतों की झुरमुट

 मुझे प्यार का वह सदन कह रहे

चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे


ऐसी लचकन कहां देती है जिंदगी

चाहतों में समर्पण की जो बुलंदगी

कैसे साँसों में सरगम शयन कर रहे

चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे


कौन करेगा पहल प्रतीक्षा है बड़ी

जिंदगी देती क्यों है ऐसी कुछ घड़ी

मन में मन का ही गबन कर रहे

चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे


लोग क्या कहेंगे है सघन भी झुरमुट

अभिव्यक्तियों के भाल दें कैसे मुकुट

अनुभूतियां मृदुल यूं सघन कर रहे हैं

चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे हैं


हां इधर भी तो तड़पन की हैं धड़कनें

चाह में उजास तो कहां हैं अड़चने

सघन व्योम का वह जतन कर रहे

चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे।


धीरेन्द्र सिंह


06.02.2024

07.14

रविवार, 4 फ़रवरी 2024

सूरज

 मुट्ठी में भरकर शाम सिंदूरी सूरत

जो चलने लगा बीच बस्तियां

चमकने लगे कई सूरज नयन


खुल गए सारे दरवाजे खिड़कियां


तंग गलियों थी ठुसी बैठी चाल

समेटकर अपने भीतर अंधियार कश्तियाँ

ना सोती ना उठती लगातार जगती

एक सूरज की चाहत लिए हस्तियां


पकड़ हाँथ मेरा कोई एक बोला

सूरज से जुड़ी उन सबकी मस्तियाँ

दूजा बोला रुको जरा तो कहो

क्या लूटने को आमादा हैं गश्तियाँ


हाँथ छूटा जो सूरज, लपक सब पड़े

रोशनी में दिखी जिंदगी कुलबुलाती दरमियां

एक तड़प ले उठी, हुंकारती आवाज़ें

टुकड़ा-टुकड़ा हुआ सूरज,चाह को शुक्रिया।


धीरेन्द्र सिंह

04.02.2024

19.39

शनिवार, 3 फ़रवरी 2024

लेखन में नारी

 अधिकांश पुरुष के लेखन में केंद्र नारी

त्याग, तपस्या, समर्पण की अभिव्यक्तियां

नारी सब सह ले धरा की तरह

गजब का कपट, पुरुष पार्श्व आसक्तियां


भोली है नारी भावनाओं का है प्रवाह

पुरुष प्रशंसा की करता नित युक्तियां

खुश हो जाती नारी पढ़कर साहित्य

नारी नहीं तो जग में रिक्तियां ही रिक्तियां


वर्षों से लगा है पुरुष नारी रिझाने में

कहता नारी में समाहित सर्व मुक्तियाँ

इस भरम का चरम उत्सवी नरम

स्वाहा कर खुद कितनी खुश हैं नारियां


करते नारीत्व पर चोट ऐसे रचनाकर

नारी पर ही लिखें जैसे पुरुष की न बस्तियां

सभी प्रतीक, उपमा, बिम्ब जुड़ी नारी

लेखन की बेरहम नारी से भरी कश्तियाँ।


धीरेन्द्र सिंह


04.02.2024

10.090

दीवानी


 

प्यार श्रृंगार अधर रचकर

खुमार आधार के अनुरागी

किस रूप मिलन दृग का

क्या प्रणय रीत है सहभागी

 

मुस्कान दबी कथा रचित

किस विधि हो जाते संज्ञानी

बिन संबोधन का सम्मोहन

निस अनुभूति प्रीत अनजानी

 

किस बात अधर पर बात रहे

किस राह सबर की चाह ढहे

कह सकने की जिज्ञासा भी 

किस शब्द को साज सांझ गहे

 

मन मोहित एक पुरोहित है

हर भाव सकल तिरोहित है

अब लगे कठिन है यजमानी

पर कब मानी है प्रीत दीवानी।

 

धीरेन्द्र सिंह

03.02.2024

16.50

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2024

मोहब्बत का महीना

 

यूं पंख समेटे कब तक जीना है

उड़िए कि मोहब्बत का महीना है

 

पलक सींच लीजिए अकुलाहट भर

उड़ चलिए खूबसूरत रंगीन हैं पर

प्रकृति ने सौंदर्य हर ओर बीना है,

उड़िए कि मोहब्बत का महीना है

 

ग़ज़ल के हुस्न पर आपकी अंगड़ाई

वसंत बन महंत करने को चौधराई

भारतीय पाश्चात्य संयुक्त नगीना है

उड़िए कि मोहब्बत का महीना है

 

हृदय के भाव नयन पुतली में छाए

लगन के तार मगन तितली सा भाए

समझ लें आप किसीका दागिना हैं

उड़िए कि मोहब्बत का महीना हैं

 


हुआ क्या क्षद्म से उनका साथ छूटा है

प्रसंग अब भी यादों में संवाद रूठा है

बहारें अब भी झूमें वह तो हठी ना है

उड़िए कि मोहब्बत का महीना है।

 

धीरेन्द्र सिंह

02.02.2024

14.21

गुरुवार, 1 फ़रवरी 2024

मस्तूल हो गए

 

आईने में भाव चेहरा फिजूल हो गए

जब से वो यकायक मस्तूल हो गए

 

एक सोच उधार का बिन विश्लेषण

मस्तूल होकर पा गए एक विशेषण

कर्म कर रहे थे जो धता दे गए

जब से वो यकायक मस्तूल हो गए

 

कहा गया कि नाव यह व्यापार करेगी

भाषा और संस्कृति का प्रचार करेगी

हो साथ लुटेरों के मशगूल हो गए

जब से वो यकायक मस्तूल हो गए

 

कोई कहे आपा कोई दोहा भी सिखाए

मस्तूल प्रकाशन का सर्व बात बताए

लालच में उलझ उजड्डों के मूल हो गए

जब से वो यकायक मस्तूल हो गए

 

ढाबा सी नौका में अकस्मात ही हिचकोले

हवाओं के वेग से नौका संग खूब डोलें

स्वार्थियों के बीच वह चाह फूल हो गए

जब से वो यकायक मस्तूल हो गए।

 


धीरेन्द्र सिंह

02.02 2024

09.52

बुधवार, 31 जनवरी 2024

किसान

 सूर्य रखता भाल पर तन पूर्ण स्वेद

माटी से कलरव कृषक करे बिन भेद


माटी मधुर संगीत बन फसलें लहराए

वनस्पति संग जुगलबंदी से फल इतराएं

कृषक चषक सा माटी में भरता श्रम नेग

माटी से कलरव कृषक करे बिन भेद


सर्दी की ठिठुरन में खेतों की रखवाली

मर्जी से ना मिल पाए अपनी घरवाली

थाली लोटा ऊंघता माटी भीत को देख

माटी से कलरव कृषक करे बिन भेद


मौसम मार पशुओं का वार फसल सहे

करे किसानी बस मचान चहुं दिशा गहे

ट्रैक्टर ट्रॉली अर्थ बवाली नहीं विशेष

माटी से कलरव कृषक करे बिन भेद


अन्न देवता देश का है गरीब किसान

रोटी-बेटी जब जगें माटी दे तब तान

है समर्पित साधक माटी योगी निस्तेज

माटी से कलरव कृषक करे बिन भेद।


धीरेन्द्र सिंह

01.02.2024

12.29