रविवार, 7 जनवरी 2024

छोरी

 चाहत की इतनी नहीं कमजोरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी


गर्व के तंबू में तुम्हारा है साम्राज्य

चापलूसों संग बेहतर रहता है मिजाज

सत्य के धरातल पर क्षद्मभाव बटोरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी


उम्र कहे प्रौढ़ हो, किशोरावस्था लय है

जहां भी तुम पहुंचो, तुम्हारी ही जय है

तुम हो तरंग बेढंग की मुहंजोरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी


राह अब मुड़ गयी इधर से उधर गयी

झंकृत थी वीणा अब रागिनी उतर गयी

सर्जना के शाल ओढ़ाऊँ न सिंदूरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी


आत्मा से आत्मा का होता विलय

तुम ढूंढो आत्मा में दूजा प्रणय

सुप्त यह गुप्त, निरंतर है लोरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी।



धीरेन्द्र सिंह

08.01.2024

08.48

क्या करूँ

 चांदनी बादलों से अचानक गयी सिमट

क्या करूँ व्योम से बोला बादल लिपट


प्यार उर्ध्वगामी इसकी प्रकृति ना अवनति

यार मात्र एक ठुमकी सहमति या असहमति

प्यार ना सदा मृदुल राह यह है विकट

क्या करूँ व्योम से बोला बादल लिपट


आज भी आकाश में दौड़ रहे हैं मेघ

चांदनी कब मिले, क्या लगाएं सेंध

द्विज में ही गति, बूझना कठिन त्रिपट

क्या करूँ व्योम से बोला बादल लिपट


चांदनी है चंचला चांद को न आभास

जलभरे बादलों में भी है अनन्य प्यास

प्रेम एक से ही होता बोलता विश्व स्पष्ट

क्या करूँ व्योम से बोला बादल लिपट


एक प्रतीक्षा प्यार का दिव्यतम अभिसार का

नभ में नैतिकता के भव्यतम स्वीकार का

यदि प्रणय प्रगल्भ तो चांदनी चुम्बक निपट

क्या करूँ व्योम से बोला बादल लिपट।


धीरेन्द्र सिंह


07.01.2024

19.44

शनिवार, 6 जनवरी 2024

अक्षत

 दरवाजे की घंटी ने जो बुलाया

देख सात-आठ लोग चकमकाया

ध्यान से देखा तो केसरिया गले

कहे राममंदिर हेतु अक्षत है आया


श्रद्धा भाव से बढ़ गयी हथेलियां

लगा कोई नहीं मेरे राम दरमियां

राममंदिर फोटो संग इतिहास पाया

जो देखता पढ़ता था वह अक्षत है आया


कुहूक एक उठी सारी गलियां जगी

राम कण-कण में अक्षत की डली

बारह दीपक जलाने का था निदेश

 कह जै श्रीराम बढ़ गयी वह टोली


व्यक्ति में भी प्रभुता हुई दृष्टिगोचित

राम मर्यादा से हो भला क्या उचित

राम से ही सृजित संचित आत्म बोली

भजन गूंज उठा दिया ताल मन ढोली


सर्जना की अर्चना का भव्यता साक्षात

अक्षत बोल पड़ा सनातन ही उच्छ्वास

भारत संग विश्व गुंजित हो प्रीत मौली


विवाद निर्मूल सारे जीव राम टोली।


धीरेन्द्र सिंह

07.01.2024

08.28

बहुत दूर से

 बहुत दूर से वह सदा आ रही है

उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही है


छुआ भाव ने एक हवा की तरह

हुआ छांव सा एक दुआ की तरह

वह तब से मन बना आ रही है

उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही है


सदन चेतना के हैं सक्रिय बहुत

मनन वेदना के हैं निष्क्रिय पहुंच

भावनाएं दूर की कैसे बतिया रही हैं

उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही है


अक्सर कदम दिल के चलते चलें

कोई क्या नियंत्रण यह हैं मनबहे

चाहतें चलते मुस्का चिहुंका रही हैं

उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही हैं


कल्पनाओं की अपनी है दुनिया निराली

यहां न रोकटोक है ना कोई सवाली

टाइपिंग यहां अपने में इतरा रही है

उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही हैं।


धीरेन्द्र सिंह


06.01.2024

19.33

छपवाली

 जितनी छपी है क्या सब पढ़ ली

फिर क्यों अपनी अभी छपवाली


भाषाओं में नित नए सृजन तौर

मौलिक हैं कितने कौन करे गौर

अपनी महत्ता क्या सब में बढ़ाली

फिर क्यों अपनी अभी छपवाली


क्या लिखे क्यों लिखे सिलसिले

पहले भी यही लिखा सत्यमिले

लेखन से क्या रचनात्मकता खिली

फिर क्यों अपनी अभी छपवाली


पुस्तक प्रकाशन शौक और नशा

रचनाकार बिन पके लिखा वो फंसा

कई प्रकाशकों के झांसे गली-गली

फिर क्यों अपनी अभी छपवाली


अनेक पुस्तक लेखक लगें निरुत्तर

पुस्तक की चाह जैसे पुत्री-पुत्तर

हिंदी इस जंजाल की ज्ञात क्या कड़ी

फिर क्यों अपनी अभी छपवाली।


धीरेन्द्र सिंह


06.01.2024

15.32

शुक्रवार, 5 जनवरी 2024

राम मंदिर

 इतिहास के पन्नों को निहार

पांच सौ वर्षों की ललक पुकार

स्वर्ण हिरण सा विचरित भ्रम

हुआ ध्वनित फिर राम टंकार


पांच सौ वर्ष पुरातत्व अभिलाषी

कुछ प्रतीक प्रमाण सच आसी

न्यायालय सर्वोच्च का निर्णय

राम नाम का तथ्य अभिलाषी


वाद-विवाद असंयमित रचि संवाद

मेरी-तेरी का गूंजा गहि नाद

प्राण त्यजन बसि गहन घनन

राम राज्य का गुंजित निनाद


इतिहास पुनः सर्जित अनुप्रतियाँ

दिग-दिगंत अयोध्या की युक्तियां

शिल्प कौशल में संस्कृति कृतियाँ

राम मंदिर ओर प्रवाह भक्तियाँ 


बाईस जनवरी सनातनी की इकहरी

प्राण प्रतिष्ठा नयना सब लहरी

आस्था अनुनय आमंत्रित सविनय

राम धनुष सा कौन है प्रहरी।



धीरेन्द्र सिंह

05.01.2024

21.14

गुरुवार, 4 जनवरी 2024

बिनकहे

 मुझे हर तरह छूकर तुमने

दिए तोड़ बिनकहे नूर सपने


एक बंधन ही था, जिलाए भरोसा

तुमने भी तो, थाली भर परोसा

यकायक नई माला लगे दूर जपने

दिए तोड़ बिनकहे नूर सपने


वेदना यह नही मात्र अनुभूतियां

प्यार में भी होती हैं क्या नीतियां

प्यार तो अटूट देखे मजबूर सपने

दिए तोड़ बिनकहे नूर सपने


तन की चाहत में है सरगर्मियां

प्यार तो महक दिलों के दरमियां

प्यार बंटता भी है कब कहा युग ने

तोड़ दिए बिनकहे नूर सपने


चाह की राह में कैसा भटकाव

जुड़ी डालियां जब तक ही छांव

कैसा अलगाव खुद को लगे छलने

तोड़ दिए बिनकहे नूर सपने।


धीरेन्द्र सिंह

05.02.2024


08.23