शुक्रवार, 12 मई 2023

मर्तबान

 कथ्य की नगरी में तथ्य मर्तबान है

झूठ को खरीदिए सजी दुकान है


छल की छुकछुकाहट नहीं है कबाहट

कड़वाहट का अब असंभव निदान है


क्षद्म का बज़्म आकर्षण का केंद्र

प्रवेश मिल जाएगा गर मेहरबान हैं


निजता के हांथों तौल गए कई लोग

धूर्तता का एक अपना संविधान है


भोली सूरत का प्रेम खुदगर्ज सा 

फिर भी रहो जुड़े कि कीर्तिमान है


संशय के अंजन से सजी हुई अंखिया 

आधीरात को कहें हुआ बिहान है


कब कौन किस कदर लूटे अस्मिता

भावनाओं को छुपाए कब्रिस्तान है।


धीरेन्द्र सिंह

12.05.2023

23.05

बुधवार, 26 अप्रैल 2023

डाली सी तुम

 डाली सी तुम 


लचकती डालियों में पुष्प बहार है

कब कही डाली बहुत ही भार है 


प्रकृति सौंदर्य का एक प्रतिमान है

सुगंध, रंग का एक अभिमान है

डालियाँ झोंका हवा शुमार है

कब कही डाली बहुत ही भार है


छोड़ जाती हैं लदी सारी पत्तियां

पुष्प झर जाते समेटे आसक्तियाँ 

लचक डाली भी लगे खुमार है 

कब कही डाली बहुत ही भार है 


सावन में सज जाते कई झूले

बूंदें भी लटकती तन छू ले 

भीगी डाली में हौसले बेशुमार है 

कब कही डाली बहुत ही भार है 


डाली सी तुम जैसी सबका अधिकरण 

संभालो भी तो कैसे यह पर्यावरण 

कहीं सूखा कहीं कटारी वार है 

कब कही डाली बहुत ही भार है। 


धीरेंद्र सिंह 

26.04.2023

13॰17

बुधवार, 12 अप्रैल 2023

घुसपैठिया

 जब मैं

तुम्हारी निगाहों से

उत्तर जाता हूँ

दिल में तुम्हारे

और बैठ जाता हूँ

दिल के किसी कोने में

तो तुम

नहीं समझ पाती

यह पैठ

भला कहां समझ आते हैं

शीघ्र घुसपैठिए,


होते जाता हूँ मुग्ध

दिन-प्रतिदिन

देख तुम्हारी कल्पनाशीलता

और विविध शाब्दिक बुनावटें,

दिल कभी मुस्कराता है

कभी होता गंभीर

कभी चंचल चुलबुला

कभी दर्द लकीर

और झपकता है तेज

तुम्हारी पलकों से,


यदा-कदा

करता है जिक्र दिल

मेरे नाम का

तब ठहरती हो क्षण भर

कि कहे दिल कुछ और

पर कुछ और बोलते जाता है,


तुम्हारी तरह

उत्सुक हूँ मैं भी

क्या बोलता है दिल

और जिस दिन

बोल उठेगा दिल

लिख दोगी तुम अपनी

एक नई कविता 

दिल हो जाऊंगा उस दिन

तुम्हारा ओ शुचिता। 


धीरेन्द्र सिंह

12.04.2023

06.02

जीवन

 यादों के बिस्तर पर

अभिलाषाओं की करवटें

सिलवटों में दर्द उभरे

भावनाओं की पुरवटें


दिल में पदचाप ध्वनि

पलक बंद ले तरवटें

अनुभूतियों की आंधी चले

तोड़ सारी सरहदें


विवशता के समझौते हैं

व्यक्ति उड़ रहा परकटे

पुलकावलि करे सुगंधित

तन समर्पित मनहटे


निरंतर जीवन विभाजित

व्यक्तित्व के झुरमुटें

व्यवहार ले बहुरूपिया

जुगनुओं सा जल उठें।


धीरेन्द्र सिंह

12.04.2023

04.35

क्यों श्रृंगार पर रचें

प्रेमिका प्रेमी यदि अपना भगा दे

विखंडित हो ही जाती संलग्नता

विगत जुगनू सा चमका लगे तो

चाह हंसती समाए कुरूप नग्नता


समर्पण करनेवाला करे जब तर्पण

वायदों की चिता सी हो निमग्नता

एक टूटन बिखरने लगे परिवेश भर

व्योम तपने लगे पा राख की दग्धता


कोई दूजा बना अपना, मिल जपना

खपना एक-दूजे की, तन सिक्तता

पाला बदलते, जो करे प्यार अक्सर

छपना देह पर, खुश देख दिल रिक्तता


भावशून्य भी जलते हैं, अलाव बहुत

चर्चे में यही, अलाव रचित स्निग्धिता

तपन का तौर, निज संतुष्टि साधित

दहन में दौर, भाव ग्रसित विरक्तिता


हृदय हारा हुआ सैनिक सा गुमसुम कहीं

तन लगे विजयी सम्राट की लयबद्धता

क्यों श्रृंगार पर रचें रचनाकार सब

भ्रमित राह पर जब प्रीत की गतिबद्धता।


धीरेन्द्र सिंह

11.04.2023

13.36

यादों की छुवन

मन किसी धूप के टुकड़े में डूबी सर्दी है

आप चाहें न चाहें आपकी यह मर्जी है


एक हालत में उलझी हुई है जिंदगी यह

आपकी याद समझना ना खुदगर्जी है


अलहदा मन की आवारगी कह लीजिए 

भरम ना रखिये कि चाहत की अर्जी है


एक सिहरन उठी दौड़ पड़ा याद आईं

छत पर भावनाओं की बिखरी कई जर्दी है


धूप यादों की छुवन की ऊष्मा सी लगे 

या खयालों में बिखरी कोई हमदर्दी है।


धीरेन्द्र सिंह

10.04.2023

06.05

कृष्ण हो जाना

 चाह की गगरी में इश्क का बुदबुदाना

आग दिल की और उनका उबल जाना


यह राह है जीवन की उमंगों की चहल

खयालों में लिपटकर आहिस्ता इतराना


पहली जल वलय है तरंगित परिष्कृत

उपकृत कर अजूबा कृत कर जाना


समन्वय के गणित रहे बनते बिगड़ते

फैसलों के हौसलों में ही सिमट जाना


कर ब्लॉक नई राह को लिए लपक

चाहत के मौसम का यूं बदल जाना


एक राह एक पनघट एक ही गगरिया

गोपियों के ही वश में कृष्ण हो जाना।


धीरेन्द्र सिंह

10.04.2023

03.44