बुधवार, 24 अगस्त 2022

पपड़ियां


पर्वतों के पत्थरों पर पड़ गयी पपड़ियां

एक मुद्दत से यहां कोई हवा न बही

व्योम में सूर्य की तपिश थी धरती फाड़

चांदनी पूर्णिमा में भी ना नभ में रही


क्या प्रकृति में भी होता षड्यंत्र कहीं

अर्चनाएं जीवन की पहाड़ी नदी बही

किस कदर जी लेती है इंसानियत भी

कल्पनाओं में चाह स्वप्न बुनती रही


अब न ढूंढो हरीतिमा पर्वत शिखरों पर

कामनाएं प्रकृति अवलम्बित उल्टी बही

एक हवा बन बवंडर सी चल रही है यहां

मगरूरियत विश्वास में राग वही धुनती रही।


धीरेन्द्र सिंह


सन्नाटा

 सन्नाटे में नई रोशनी जग रही

उठिए न देखिए सांखल बज रही


मत सोचिए हवा की है मस्तियाँ

शायद कहीं करीब हो बस्तियां

एकाकी आत्मिक सुंदरता सज रही

उठिए न देखिए सांखल बज रही


हृदय का हृदय से हार्दिक मिलान है

दो हृदय नाम वैसे तो एक जान हैं

जीवन झंझावात में त्रुटियां लरज रहीं

उठिए न देखिए सांखल बज रही।


धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 10 अगस्त 2022

हिंदी

शब्द की टहनियों में प्यास है भाव की वृष्टि भी उदास है बिखर रही है यह जुगलन्दी लिखिए आपके जो पास है चंद नामों से बचिए हैं मशहूर चिंतन आपका भी खास है स्वतंत्र लिख देना है बड़ी बात कई प्रभावों में बंधे हाँथ है लिख रहे छप रहे, जप रहे एक परिवर्तन हिंदी तलाश है क्रांति हिंदी जगत में अपेक्षित करें प्रकाशित स्व, हिंदी हताश है। धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 3 अगस्त 2022

उड़ गई गौरैया

न खोने का दर्द न पाने की खुशियां वह दर्द में न हो बंद है अभी बतियां उड़ गई गौरैया या जाल की दुनिया पीड़ा में ना रहे अभी सखा न सखियां संवादहीनता का न भय संवाद हो उसके दरमियाँ दंभी है कोमल मनवाली ढूंढे उसे सुर्खियां। धीरेन्द्र सिंह

मंगलवार, 24 मई 2022

अपहरण

कब चले थे, राह भी है भ्रमित पांवों को दूरी का भी नहीं पता कब निर्मित ही गयी यह दूरियां वक़्त कहता समय से अब तो बता प्रकति यह सम्पूर्ण है डगमगाती कोई दिन मेहनत किसी को रतजगा सब सुरक्षित पर असुरक्षित रहें हर समय प्रहरी जीवन डगमगा सत्य को तो भेदिए ले तर्क नए भाव वंचित, खंडित तथ्य सुगबुगा हरण भी अपहरण भी कब हो गया और बंधन बढ़ रहे क्यों बुन बुना। धीरेन्द्र सिंह

नदिया

कितनी मंथर चल रही नदिया भावनाएं तैर कर तट छू गयी यह प्रकृति है या नियति डगर चलन है अंदाज लट खो गयी तेज नदिया थी तो लट भी था लहरें केश संवारते घट चू गयी अब कहाँ श्रृंगार नदिया निपट खो कर मंजिल ललक सो गई और तट पर कंकड़ों से खेल डुप ध्वनि कंकड़िया भू भई झकोरों में तपिश कशिश नहीं नदिया है सामने हवा लू भई। धीरेन्द्र सिंह

आघात

ना आदर का ही है भूखा कहे बस सत्य लगे रूखा एक आघात ही निर्माण है सजगता तो बस एकमुखा क्यों चर्चा हो कहीं अक्सर क्यों बातें दे अक्सर झुका अपनी जिंदगी जी लीजिए समय से है तिमिर बुझा बस राह थी उपवन भरी कदमों में खुश्बू को लुका मढ़ लिए थे गगन हृदय में यामिनी मन गहि ढुका । धीरेन्द्र सिंह