शनिवार, 31 अगस्त 2024

एडमिन

 समूह के नाम सहित दूसरे समूह धमाल

यह लोग कौन हैं जिनका कर्म है रुमाल


एक समूह लिखें दूजे समूह नाम लहराएं

एक-दूजे को कैसे आपस में देते उलझाएं

यह कैसा लेखन समूह नाम का जंजाल

यह लोग कौन हैं जिनका कर्म है रुमाल


एक एडमिन की एक सदस्य से हुई लड़ाई

बोली मेरा भाई था दूजे नाम रोक लगाई

हिम्मत हुई कैसे समूह मेरा कहूँ ठोक ताल

यह कौन लोग हैं जिनका कर्म है रुमाल


यह मस्तमिजाजी है या तुनकमिजाजी कहें

एडमिन से पूछा बोली निकाला क्या कहें

करती थी मुक्त प्रशंसा कर दी वही बेहाल

यह कौन लोग हैं जिनका कर्म है रुमाल।


धीरेन्द्र सिंह

31.08.2024

23.24


प्रेम

 चलो दिल बस्तियों में हम समा जाएं

प्रेम परिभाषित करें और गुनगुनाएं


तृषित जो कामना ना होती मिलते क्यों

नियॉन रोशनी में दिए सा जलते क्यों

लौ हमारी समझ तुम्हारी लपक जाए

प्रेम परिभाषित करें और गुनगुनाएं


एक नियमावली के तहत हृदय काम करे

प्यार की रंगीनियां हों देह बात पार्श्व धरे

उन्मुक्त बोलने पर पाबंदियाँ न लगाओ

प्रेम परिभाषित करें और गुनगुनाएं


“ओ हेलो” बोलना भी तो बदतमीजी है

कड़वे शब्द बोलो क्या यही आशिकी है

प्रणय कह रहा है प्रतिक्षण न बुद्बुदाएँ

प्रेम परिभाषित करें और गुनगुनाएं।


धीरेन्द्र सिंह

31.08.2024

13.43



गुरुवार, 29 अगस्त 2024

रचनाकार

 नित नई रचनाएं

भावनाओं की तुरपाई

कुशलता है, अभ्यास है

निज कौशल है,

जरूरी नहीं कि रचनाकार

बौद्धिक है;


एक मुखौटा डालकर

एक चांदनी तानकर

रचनाओं की करें बुआई

संभावनाओं की जुताई

क्या कुछ दिखता नैतिक है?

जरूरी नहीं कि रचनाकार

बौद्धिक है;


बहुत हैं क्षद्मवेशी

सर्जना के निवेशी

देकर कोई पुराना चर्चित नाम

चाहते बनाना सर्जन धाम,

अपना नाम मुखपृष्ठ दिए

अंदर पृष्ठ विभिन्न रचनाएं

कहते सब लौकिक है,

जरूरी नहीं कि रचनाकार

बौद्धिक है।


धीरेन्द्र सिंह

30.08.2024

05.34

मंगलवार, 27 अगस्त 2024

बूंदे

 बूंदों ने शुरू की जब अपनी बोलियां

सखी-सहेलियों की उमड़ पड़ी टोलियां

 

सड़कों पर झूमता था उत्सवी नर्तन

हवाएं भी संग सक्रिय गति परिवर्तन

बदलियों का उत्पात मौसम बहेलिया

सखी-सहेलियों की उमड़ पड़ी टोलियां

 

सरपट भाग रहीं, दौड़ रहीं लक्ष्य कहीं

पहाड़ियां गंभीर होकर कहें ताक यहीं

थीं सड़कें खाली हवा-बूदों की सरगर्मियां

सखी-सहेलियों की उमड़ पड़ी टोलियां

 

प्रकृति का यह रूप जैसे भव्य समारोह

बूंदें आतुर दौड़ें असहनीय विछोह मोह

सब सिखाती प्रकृति जीवन के दर्मियाँ

सखी-सहेलियों की उमड़ पड़ी टोलियां।

 

धीरेन्द्र सिंह

28.08.2024

08.14


भवितव्य

 नेह का भी सत्य, देह का भी कथ्य

इन दोनों के बीच है कहीं भवितव्य


शिखर पर आसीन दूरदर्शिता भ्रमित

तत्व का आखेट न्यायप्रियता शमित

चांदी के वर्क के नित नए वक्तव्य

इन दोनों के बीच है कहीं भवितव्य


इस तरफ उस तरफ योजनाबद्ध शोर

कोई चाहे दे पटखनी कोई कहे सिरमौर

इन द्वंदों में लोग भूल गए गंतव्य

इन दोनों के बीच है कहीं भवितव्य


गुटबंदियाँ चाय पान की सजी दुकान

चौहद्दियाँ हों विस्तृत लगाते अनुमान

महत्व विकास गौण, निज लाभ घनत्व

इन दोनों के बीच है कहीं भवितव्य।


धीरेन्द्र सिंह

27.08.2024

20.05




सोमवार, 26 अगस्त 2024

कामनाएं

 उम्र की बदहवासी

सारी उम्र सताए खासी

मन गौरैया की तरह

रहता है फुदकता

कभी डाल पर

कभी मुंडेर पर;


मिटाती जाती है

वह पंक्तियां जिसे

लिखा था मनोयोग से

कामनाओं ने 

भावनाओं ने, रचनाओं ने

उड़ जाती है गौरैया;


कब खुला है आसमान

कब खुली है धरती

कब खुला इंसान

होती हैं बातें खुलने की

मनचाहे आसमान उड़ने की

गौरैया उड़ती तो है पर

लौट आती है 

अपने घोंसले में;


संभावनाओं को डोर पर

कामनाओं की बूंदे

थमी हुई

करती रहती हैं प्रतीक्षा

गौरैया की।


धीरेन्द्र सिंह

27.08.2024

06.49


रविवार, 25 अगस्त 2024

रचनाएं

 आपकी रचनाएं

दौड़ रही हैं

बनकर लहू

चाहतों से

और क्या कहूँ-


आपके रचना भाव

बरगद की घनी छांव

सुस्ताती जिंदगी है

शीतल मंद बयार

और खूब गेहूं;


आपके शब्द चयन

जैसे चढ़ावे के फूल

रंग और सुगंध अनुकूल

आसक्ति की डोर

और ऊपर चढूं;


आपकी रचनाधर्मिता

विषयों का आलोड़न

रचनाओं का सम्मोहन

आप लिखती रहें

और मैं पड़ता रहूं।


धीरेन्द्र सिंह

26.08.2024

06.33


शनिवार, 24 अगस्त 2024

हथेली

 पौधे की टहनी

खिला हुआ फूल

पकड़ी हथेली देख

फूल गया भूल

 

गुलाबी गदरायी हथेली

पौधे को दे तूल

पुष्प खिलाया अभिनव

जैसे हथेली फूल

 

तुम निस दिन संवारो

पौधे में नव फूल

हतप्रभ सुंदर पुष्प

जीवन यही समूल।

 

धीरेन्द्र सिंह

24.08.2024

19.08

ठरकी

 चालित, स्वचालित या संचालित

यूं रहस्यमय हों जैसे कापालिक

पूर्णता, अपूर्णता या संपूर्णता

प्रगति के दौर बड़े तात्कालिक


रात्रि अलाव दिखा अग्नि भभकी

स्वाहा हो चुका तब पुलिस पहुंची

अहंकार, अहंधार या आत्महुंकार

ढूर-दराज हालत यही सबकी


कौन सहे, कौन गहे, कौन बहे

कौन है सत्य है कौन प्रामाणिक

कौन गहे, कौन मथे, कौन सधे

कौन तथ्य है जो संवैधानिक


दूर कहीं जमघट में हो रही चर्चाएं

अबकी पर्व में कौन होगा सनकी

100 नंबर डायल किया बात हुई

सुबह खबर थी गए पकड़े ठरकी।


धीरेन्द्र सिंह

24.08.2024ठरकी

14.37


शुक्रवार, 23 अगस्त 2024

कुंवारी सांझ

 एक कुंवारी सांझ हो तुम

कोमल मद्धम आंच हो 

दिन बहुत छका चला अब

एक तुम्ही सहेली साँच हो


उपवन में सब फूल सूख रहे

तुम ही करुणा गाछ हो

जरा ठहर सुस्ताए जिंदगी

खुश मौसम का उवाच हो


दिन षड्यंत्र कर चलता बना

वह ढूंढ लिया जहां कांच हो

रात्रि बेला कर रही तैयारी

कब, कैसे उपद्रवी नाच हो


हे सांझ कुंवारी तुम ही कहो

कहां ऊर्जा संचयन खास हो

इधर-उधर जल रही आग है

बुझ जाए ऐसी कोई पांत हो।


धीरेन्द्र सिंह

23.08.2024

16.39




गुरुवार, 22 अगस्त 2024

अनबन

 कथ्य की कटोरी में भावनाओं की छलकन

समझ ना पाएं हो जाती है अजब अनबन


कथ्य एक प्रकार कथा, भावनाएं मनोव्यथा

कहनेवाला कहे यथा भावनाएं होती तथा

अभिव्यक्तियों के लहजा में होती लटकन

समझ ना पाए हो जाती है अजब अनबन


वार्ता में जब होते विषय विचार सोचे सुजय

शब्दों की दौड़ हो संपर्क तब बने अविजय

प्रवाह तंद्रा में कुछ शब्द अजूबे भी बनठन

समझ ना पाए हो जाती है अजब अनबन


चैट में तो चेहरा भी नहीं शब्द ही संसार

रोका न जाए तो भावनाओं की बहे धार

हास्य, किल्लोल, छेड़ना आदि के मनधन

समझ ना पाए हो जाती है अजब अनबन।


धीरेन्द्र सिंह

22.08.2024

19.41



बुधवार, 21 अगस्त 2024

मैसेंजर

 पहली बार जो देखा उनका फोटो

गाल गुलाल कमाल धमाल समान

मुग्धित मन सौंदर्य निरखते बहका

देने लगा नयन, अधर को सम्मान

 

चलते-चलते भाव फिसलते बहलते

श्रृंगारित शब्द लाया प्रणय अभिमान

सक्रिय छुवन अनुभूति चैट एकतरफा

उलझन क्या कहें सुजान या नादान

 

सावन के झूले सा शब्द लगा रहे पेंग

एकतरफा लेखन दूजी ओर संज्ञान

लेखन को रोका विवेक तब शांत हुए

मैसेंजर पर जमे हुए दुई विद्वान।

 

धीरेन्द्र सिंह

21.08.2024

11.35

मंगलवार, 20 अगस्त 2024

कुहूक

 तुम्हें जो सजा दूँ शब्दों से तुम्हारे

महकने लगेंगे वह सारे किनारे

जहां कामनाओं का उपवन सजा

प्रार्थना थी करती सांझ सकारे


एक संभावना हो दबाई कहीं तुम

कई भावनाएं मधुर तुम्हें हैं पुकारे

तुम्हें खोलने को खिल गईं कलियां

सूरज भी उगता है द्वार तुम्हारे


उठा लेखनी रच दो रचना नई

अभिव्यक्तियां भाव हरदम पुकारे

कल्पनाएं सजी ढलने को उत्सुक

प्रीति रीति साहित्य कुहूक उबारे।


धीरेन्द्र सिंह

20.08.2024

21.00


ज़िरह

 आपसे मिल नहीं सकता कभी

क्यों लग रहा सब हासिल है

बेमुरव्वत, बेअदब सिलसिला है

वो मग़रूर हम तो ग़ाफ़िल हैं

 

चंद बातों में खुल गए डैने

यूं लगे आसमां भी शामिल है

उड़ रहा तिलस्म का उठाए बोझा

दिल ही मुजरिम दिल मुवक्किल है

 

उनकी अदालत में डाल दी अर्जियां

अदालत ढूंढ रही कौन कातिल है

मुकर्रर का कुबूल है कह दिए उनको

ज़िरह में देखिए होता क्या हासिल है।

 

धीरेन्द्र सिंह

21.08.2024

14.04



सोमवार, 19 अगस्त 2024

प्रीति

 मन उलझा एक द्वार पहुंच

प्रीति भरी हो रही है बतियां

सांखल खटका द्वार खुलाऊँ

डर है जानें ना सब सखियां


बतरस में भावरस रहे बिहँसि

गति मति रचि सज रीतियाँ

नीतियों में रचि नवपल्लवन

सुसज्जित पुकारें मंज युक्तियां


देख रहे संस्कार पुकार मुखर

दिलचाह उछलकूद निर्मुक्तियाँ

या तो परम्परा की रूढ़ियों गहें

या वर्तमान गति की नियुक्तियां।


धीरेन्द्र सिंह

21.08.2024

12.10


रक्षा बंधन

 खुला रुंधा स्वर दिव्यता पसर गयी

राखी का त्योहार तृष्णापूर्ति कर गयी

प्रत्येक जुड़ा रचनाकार कुछ लिख गया

प्रत्येक मिठास सिंचित तर कर  गयी


भावनाओं के व्यूह में अपने ही छत्रप

चेतनाएं संकुचित स्वार्थ भेद भर गई

रणदुदुम्भी भी बोल चुप निष्क्रिय रही

वेदिकाएं प्रज्ज्वलित नारियां विकल भई


बहन एक भाव या कि मात्र अनुभूति

रक्षाबंधन अभिनंदन फिर धर गयी

बहन भाव का निभाव स्वभाव बसे

नारी वेदना क्यों समाज अधर भई


रक्षा पर्व है गर्व उत्कर्ष बहन-भाई

इसी समाज में युवती दे रही दुहाई

रक्षा बहन का भाई का निज धर्म

नारी यातना रुके बंधन की बधाई।


धीरेन्द्र सिंह

20.08.2024

00.53


रविवार, 18 अगस्त 2024

रंगीली डोरियां

 दृष्टि को बाधित न कर पाए दूरियां

खींच लेती लटकती रंगीली डोरियां


कोई स्कूटर से उतरे कोई उतरे कार

पैदल कोई अपलक सड़क करता प्यार

शाम का बाजार राखी पर्व अँजोरिया

खींच लेतीं लटकती रंगीली डोरियां


झुंड का झुंड युवतियों की भरमार

राखियां मुस्कराती कर रहीं सत्कार

दुकान दब गई बहना मन आलोड़ियाँ

खींच लेती लटकती रंगीली डोरियां


दृष्टि और राखियों में था गजब संवाद

मिठाई की दुकान पर था स्वाद विवाद

बहन की धूम थी भातृभाव गिलौरियां

खींच लेती लटकती रंगीली डोरियां।


धीरेन्द्र सिंह

18.08.2024

18.27

पुणे का बाज़ार।




गुरुवार, 15 अगस्त 2024

असुलझी कहानियां

 जीवन की हैं कुछ अपनी निज बेईमानियां

कहते नहीं थकता मन असुलझी कहानियां


एक दरस रचना भाव निभाव बन गया

एक सरस था संवाद स्वभाव बन गया

कहन के दहन की लगन बेजुबानियाँ

कहते नहीं थकता मन असुलझी कहानियां


अभिव्यक्तियों की चाह भले को बहलाएं

आसक्तियों की राह रुपहले मार्ग दिखलाए

हसरतें तलाशती हैं खूबसूरत सी नादानियां

कहते नहीं थकता मन असुलझी कहानियां


सुलझ गया तो मानो कुछ वश में ना रहा

ऐसा भी क्या जीवन जो चाहे बस कहकहा

कुछ दर्द हो कुछ तड़प लिए कारस्तानियां

कहते नहीं थकता मन असुलझी कहानियां।


धीरेन्द्र सिंह

16.08.2024

10.55


सोमवार, 12 अगस्त 2024

शेष रचना

 रचित हो गए शेष फिर भी है रचना

हर भाव कह रहा फिर कैसा कहना


कहां कोई रुकता है जब तक स्पंदन

समय रचता मुग्धकारी नव निबंधन

हर एक प्राण चाह नित जीवंत बहना

हर भाव कह रहा फिर कैसा कहना


हृदय कब कहा अब तरंगें नहीं हैं

कल्पना कब कही अब उमंगें नहीं है

अभिलाषा अछूता हंसा आज गहना

हर भाव कह रहा फिर कैसा कहना


कह ही दिया कहन की लगी अगन

घेरेबंदी में है मौन प्रतीक्षारत गगन

मोहित पुलकित हुआ पढ़ मन अंगना

हर भाव कह रहा फिर कैसा कहना।


धीरेन्द्र सिंह

13.08.2024

12.17


मत आओ

 मत आओ मुझसे करने प्यार

हो गया तो स्वयं करो सत्कार


आरम्भिक दो महीने मधुर झंकार

फिर होती नौका बिन पतवार

प्रश्न उठता बलखाती क्यों धार

हो गया तो स्वयं करो सत्कार


प्रश्न ऐसे उभरे भाग जाएं यक्ष

जैसे बतलाओ हृदय कितने कक्ष

राम सा ही हृदय बजरंगी उद्गार

हो गया तो स्वयं करो सत्कार


प्यार जाए पार्श्व सक्रिय प्रश्नोत्तरी

कहां किया प्यार, किस्मत धत तेरी

कोई नहीं होता ऐसे में मदतगार

हो गया तो स्वयं करो सत्कार।


धीरेन्द्र सिंह

12.08.2024

09.11



शनिवार, 10 अगस्त 2024

प्रत्यंचा

 द्रुम अठखेलियों में देखा न जाए जग पीर

तुम प्रत्यंचा बन जाओ मैं बन जाऊं तीर


अब प्रणय में उभर रहा जीवन का संज्ञान

चुम्बन आलिंगन से विचलित हुआ विधान

मैं क्रोधित विचलित तुम भी तो हो गंभीर

तुम प्रत्यंचा बन जाओ मैं बन जाऊं तीर


मानवता जब मनचाहा रच ले झंझावात

अपने खूंटे गाड़कर लगे सींचने नात

देखो सूर्य उगा है जमघट दर्शाए प्राचीर

तुम प्रत्यंचा बन जाओ मैं बन जाऊं तीर


सृष्टि का नहीं विधान अनर्गल हो संधान

अपना भी पुलकित रहे जगमग अन्य मकान

अकुलाहट रोमांचित कर हो स्थापित धीर

तुम प्रत्यंचा बन जाओ मैं बन जाऊं तीर।


धीरेन्द्र सिंह

11.08.2024

06.05



आग लगे

 आग लगे व्यक्ति मरे अपनी बला से

निर्द्वन्द्व प्रेम करें अपनी ही कला से


हर तरफ निर्मित हैं नव लक्ष्मणरेखाएं

मुगलकालीन शौक से जीवन गुनगुनाएं

कुछ न बोलें कुछ न कहें इस हला से

निर्द्वन्द्व प्रेम करें अपनी ही कला से


खींच दी गई हैं लकीरें मध्य रच जाओ

निर्धारित मर्यादा न टूटे ध्यान लगाओ

नेतृत्व है भ्रमित या चाहें भाव गला के

निर्द्वन्द्व प्रेम करें अपनी ही कला से


चार्वाक सोच के कई उभरे अनुपालनकर्ता

विवाद या उलझन ना ही बस वैचारिक जर्दा

शौर्य, पराक्रम, वीर अनुगामी तबला के

निर्द्वद्व प्रेम करें अपनी ही कला से।


धीरेन्द्र सिंह

10.08.2024

18.54




राहुल आनंदा

 यह कैसा फंदा

राहुल आनंदा


बांग्लादेश के लोकप्रिय लोकगायक

लोकसंस्कृति के अच्छे कलानायक

वाद्य धुन मसल दंगा

राहुल आनंदा


आक्रमणकारी भी थे संगीत दीवाने

आपकी धुन पर गाए होंगे संग गाने

लोकसंगीत हतप्रभ शर्मिंदा

राहुल आनंदा


जब मरे होंगे मरा होगा लोकसंगीत

जातिवाद में भ्रमित होंगे सोचे जीत

लोकगीत जल लपट लंका

राहुल आनंदा


भारत के पड़ोसी यहभाव असंतोषी

मंदिर हिन्दू को रौंदे जो हैं नहीं दोषी

सर्वधर्म समभाव वंदना

राहुल आनंदा।


धीरेन्द्र सिंह

10.08.2024

17.11



शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

अति बौद्धिक

 अति बौद्धिक होते हैं तार्किक तूफान

तर्क दौड़ाते है घिरता मध्यार्थी मचान


दौड़ना इनको न आता करते चहलकदमी

बचते-बचाते चलें कहीं हो न गलतफहमी

टंकार को झंकार समझाने के हैं विद्वान

तर्क दौड़ाते हैं घिरता मध्यार्थी मचान


इनका व्यक्तित्व कल्पनाओं को है सींचे

ओले पड़ने लगे तो जाएं खटिया नीचे

छुपकर सामना न करने का युक्ति ज्ञान

तर्क दौड़ाते हैं घिरता मध्यार्थी मचान


बौद्धिकता को यह कहते हैं सिरमौर

उद्दंड सिर फोड़ सकता करते न गौर

पुलिस, सेना आदि पास सुरक्षा विधान

तर्क दौड़ाते हैं घिरता मध्यार्थी मचान।


धीरेन्द्र सिंह

09.08.2024

13.23




गुरुवार, 8 अगस्त 2024

मुखौटा

 थक रही हृदय उमंगें, पसार दो

अंकुरित हैं भाव कई, संवार दो


यह समाज है बड़बोला, बड़दिखावा

यथार्थ संभव नहीं तो, करो दिखावा

प्रतिद्वंदियों का दे साथ, पछाड़ दो

अंकुरित हैं भाव कई, संवार दो


ज्ञान की छोड़ो, बस दबंगता रहे

साथ हो न कोई, समर्थन बहे

मुखौटा तुम अपना, उधार दो

अंकुरित हैं भाव कई, संवार दो


सत्य बीच, उन्मादित असत्य भीड़

असत्य की हुंकार, सत्य जलता नीड़

भीड़ उन्मादन, मंत्र वह खूंखार दो

अंकुरित हैं भाव कई, संवार दो।


धीरेन्द्र सिंह

08.08.2024

14.38


मंगलवार, 6 अगस्त 2024

ऐ रचनाकार

 व्यथा लिखे तो हो जाएगी कथा

यथा प्यार के नए भाव तू रचा


टीस पीड़ा की सामाजिक दलन

बकवास है, बता सिहरनी छुवन

सावन में पूजा पर श्रृंगार बता

यथा प्यार के नए भाव तू रचा


व्यक्तिगत जीवन में नई चुनौतियों

फिर क्यों पीड़ा व्यथा हो दर्मियाँ

दर्द भूलें मर्ज को देते हुए धता

यथा प्यार के नए भाव तू रचा


लेखन को लगता क्या लेखन महत्व

रचना में प्रेम, हास्य खोजे निजत्व

ऐ रचनाकार अन्य विधा न जता

यथा प्यार के नए भाव तू जता।


धीरेन्द्र सिंह

07.08.2024

10.31


घाव

 घाव है जख्म है, मूक हो जाएगा

समय एक दवा, सूख खो जाएगा


घाव जख्म जीवन के अटूट अंग

वेदना में सिमटी हर्षदायक तरंग

आज धूमिल कल धवल हो जाएगा

समय एक दवा, सूख खो जाएगा


टोह कर टोक कर कभी गोदकर

उन्मादी करते यूं जीवन का सफर

अयाचित हो वह भी संवर जाएगा

समय एक दवा, सूख खो जाएगा


पल्लवन की चाह में प्रयास उन्नयन

मस्तिष्क कुछ कहे अलग मन उपवन

हुड़दंगई को नया फांस लग जाएगा

समय एक दवा, सूख खो जाएगा।


धीरेन्द्र सिंह

07.08.2024

08.11




संभालिए

 कल की आदर्शवादिता दीखती कहां आज

दलदल में धंसता जा रहा संभालिए समाज


युवाशक्ति संग्रहित विद्यार्थी अनहोनी कर जाएं

नेतृत्व यदि चला गया उसका अंतर्वस्त्र लहराएं

यह कौन सी मर्दानगी पुरुषत्व का है मिजाज

दलदल में धंसता जा रहा संभालिए समाज


अधूरी अपूर्ण विद्यालयीन शिक्षकों का ज्ञान

धर्मावलंबियों का कैसे दबंग ऊंचा है मकान

देखिए छुपी शक्तियां विवेक को रहीं हैं माँज

दलदल में धंसता जा रहा संभालिए समाज


सकारात्मक के विपक्ष उभर रहीं नकारात्मकताएं

हवन करते पुजारी को आसुरी शक्तियां उलझाएं

आत्मिक रणदुदुम्भी से समाज को दे सही साज

दलदल में धंसते जा रहा संभालिए समाज।


धीरेन्द्र सिंह

06.08.2024

21.14



सोमवार, 5 अगस्त 2024

भाग चलें

 मन उलझी सुप्त भावनाओं को नाप चलें

गृहस्थी से जुड़े हुए कुछ दिन भाग चलें


कार्यमुक्त जब रहें मन यह उन्मुक्त रहे

क्या सोचा था क्या हैं किसे व्यक्त करें

सांसारिक दायित्वों में क्यों यह भाव तलें

गृहस्थी से जुड़े हुए कुछ दिन भाग चलें


स्वप्न और यथार्थ बीच जीवन हो चरितार्थ

स्वयं ही कृष्ण बनें आरूढ़ रथ बन पार्थ

अब थका दे रही हैं परिवेश की हलचलें

गृहस्थी से जुड़े हुए कुछ दिन भाग चलें


सुखद आवारगी हर दिल की हैं अभिलाषाएं

अल्पकालिक मनसंगत संयुक्त पतंग उड़ाएं

परिवर्तन सृष्टि गति मन परिवर्तित ले चलें

गृहस्थी से जुड़े हुए कुछ दिन भाग चलें।


धीरेन्द्र सिंह

06.08.2024

07.28




तुमको सोचा

शांत थी मेरी सुबह की सड़क 

बरस ही रहा था झूमता सावन

बहुत दूर से देखा तुम आ रही

यही होता मन मौसम हो, पावन


समुद्री हवा के छाता पर थे थपेड़े

या सोच तुमको चहक उठा सावन

मोबाइल में चाहा करूं कैद तुमको

कहां फिर मिलेगा क्षण मनभावन


सड़क पर था बूंदों का मुक्त नर्तन

सड़क थी खाली तुम्हारा था आगमन

मन की लहर पर बढ़ रहे थे कदम

तुमको सोचा और बहक खिला मन।


धीरेन्द्र सिंह

05.08.2024

15.06




रविवार, 4 अगस्त 2024

इस सावन

 कोई शगुन हो कोई अब करामात हो

इस सावन भींगे मन, ऐसी बरसात हो


बदलियां हंसती-मुस्काती उड़ जाती है 

पवन झकोरों को धर सुगंध भरमाती है 

कभी तो लगे बदली आंगन अकस्मात हो

इस सावन भींगे मन, ऐसी बरसात हो


पौधे घर के झूम रहे लग रहे प्रफुल्लित

औंधे लेटे सोचें बदरिया घेरे मन उल्लसित

मन बौराया सावन में भले ही अपराध हो

इस सावन भींगे मन, ऐसी बरसात हो


साथी थाती बाती बारे उजियारा सावन

भोले भंडारी को हो जलाभिषेक पावन

अभिलाषाओं का कावंड़ आशीष शुभबात हो

इस सावन भींगे मन, ऐसी बरसात हो।


धीरेन्द्र सिंह

04.08.2024

16.47



शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

हिंदी साहित्य

 कल्पनाओं के नभ तले शाब्दिक दुलार

हिंदी साहित्य वर्तमान में सुप्त प्यार


शौर्य और प्यार का है गहरा अटूट नाता

प्यार के बस छींटे लिखें शौर्य रह जाता

सीधे संघर्ष से पीछे हटता दिखें रचनाकार

हिंदी साहित्य वर्तमान में सुप्त प्यार


जिधर पढ़िए प्यार का टूटन, घुटन, मनन

बिना शौर्य प्यार कब निर्मित किया गगन

लगे लेखनी थकी-हारी लिए टूटा हुआ तार

हिंदी साहित्य वर्तमान में सुप्त प्यार


बेबाकी से विगत का वही लेखकीय जुगत

हिंदी है पार्श्व में, भाषा क्रम सक्रिय जगत

परम्परा प्रति मोहित वर्तमान च्युत हुंकार

हिंदी साहित्य वर्तमान में सुप्त प्यार।


धीरेन्द्र सिंह

03.08.2024

10.42




औकात

 निभ जाने और सौगात की बात है

कुछ कहें, दीवाने औकात की बात है


हर दृष्टि हर ओर से नापती पहले

हर सृष्टि हर पल ले साजती पहले

हर बुद्धि करे विश्लेषण जो नात हैं

कुछ कहें, दीवाने औकात की बात है


हर कोई नापता, तौलता चले जीवन

हर कोई कांपता, हौसला करे सीवन

प्रभाव ऊंचे ही रहें करते हियघात हैं

कुछ कहें, दीवाने औकात की बात है


बदल चुका बहल रहा अब परिवर्तन

अपनी तरह जी लें कर नव संवर्धन

आवरण सहित स्वार्थ लक्ष्य साथ है

कुछ कहें, दीवाने औकात की बात है।


धीरेन्द्र सिंह

03.08.2024

08.09




गुरुवार, 1 अगस्त 2024

एडमिन

 एडमिन, मॉडरेटर संयुक्त यह समूह

पर किसी एक से स्पष्ट युक्ति समूल

रचना की सर्जना की प्रक्रिया समझ

अपनी प्रतिक्रिया देने में सुस्ती ना भूल


प्रेम यहीं हो जाता रचनागत संयोजन

एक के कारण लगे समूह सुगंधित फूल

रचनाकार हो पुलकित सर्जन नित करे

नित चाहे आत्मीयता और गहन अनुकूल


सिर्फ नाम परिचय शब्द निहित व्यक्तित्व

सर्जन की दुनिया का प्रोत्साहन समूल

ना जाने कब तक लहर नाव तादात्म्य

नित्य आप ही लगें दिग्दर्शक मस्तूल।


धीरेन्द्र सिंह

02.08.2024

08.35


हिंदी समूह

 यह समूह, वह समूह, कह समूह

हिंदी सकल समझ ले, बह समूह


नियमों की कहीं चटखती चिंगारियां

कहीं प्रतियोगिता की सुंदर क्यारियां

हिंदी मंथन से रच भावी नव व्यूह

हिंदी सकल समझ ले, बह समूह


उत्साहित करते कुछ समूह संचालक

वर्तमान में समूह भी हिंदी पालक

नई सोच नई खेप नवकल्पनाएँ दूह

हिंदी सकल समझ ले, बह समूह


वर्तमान और पढ़े, नव कदम बढ़ें

समूह की सर्जना से, लेखन मढ़ें

अनप्रयोज्य अधिसंख्य प्रायः ढूर

हिंदी सकल समझ ले, बह समूह।


धीरेन्द्र सिंह

01.08.2024

13.56