शनिवार, 21 सितंबर 2024

जीवंत रचना

उन्होंने किया अभिव्यक्त

जीवित हूँ मैं

श्वासों की गतिशीलता

मेरे जीवित होने का प्रमाण है,

फूल सी खिलखिलाती हूँ

तुम्हारी और मेरी दृष्टि में

बस इतना अंतर है

मैंने तुम्हारे होने में

सुगंधित खिलखिलाते

फूल रूपी अस्तित्व को

स्वीकारा है

और तुमने

मेरी जली भूनी हड्डियों में;


आश्चर्य हुआ पढ़कर

क्योंकि

यह हमेशा दर्शन, जीवन पर

लिखती हैं

किन्तु आज विषय किस काज,

आंदोलित हो जाता है पुरुष

हो जाती है नारी जब मुखर

तब बौखलाया पुरुष

करता है बात

शालीनता और मर्यादा की

तब मुस्करा उठती है नारी;


उन्होंने आज क्यों लिखा

अस्तित्व और अस्थि

इसी चिंतन में लगा

है नारी समग्र सृष्टि

और पुरुष पर्वत

जिसपर सृष्टि विस्तृत, उन्मुक्त

गा रही है गीत

कोमलतम संवेदनाओं संग

भर पर्वत में तरंग

अपनी पुष्प वाटिकाओं संग

नहीं कह पाता कुछ

कहां पाए पर्वत

नारी मन।


धीरेन्द्र सिंह

21.09.2024

18.07