कभी आंगन में बिछाकर सपने
मुझको लूट लिए मेरे ही अपने
बहुत चाह सी थी उनपर निर्भर
मेरे साथ हैं तो स्वर्णिम है घर
बड़े विश्वास से टूट गया अंगने
मुझको लूट लिए मेरे ही सपने
उमंग, तरंग, विहंग सी भावनाएं
आदर्श, सिद्धांत, समाज कामनाएं
चक्रव्यूह रच ढहा दिया भय ने
मुझको लूट लिए मेरे ही अपने
कहां थी कल्पनाएं कहां अब बताएं
किसी से क्या बोलें, क्षद्म हैं सजाए
व्यक्ति सत्य या भ्रम, यही है सबमें
मुझको लूट लिए मेरे ही अपने।
धीरेन्द्र सिंह
27.03.2025
09.01