सोमवार, 29 जुलाई 2024

सागर

प्रातः 7.30 बजे का सागर
मंद लहरों पर थिरकता
सावन की हवाओं संग जल
अपलक देखता
“अटल सेतु”
लगभग नित्य का दृश्य,

तट पर खड़ा
जल की असीमता से
अपनी असीमता की
करता रहा तुलना,
मन में विश्व या
विश्व में मन,
बोला विवेक रुक पल
बता तन में कितना जल,

नवजात को मातृ दुग्ध
मृत देह को गंगाजल,
शिव का जलाभिषेक
सागर से राम अनुरोध,
जलधारी सागर को समझ
अतार्किक ऐसा न उलझ,

आज सागर क्यों बोल रहा
नित सागर तट से
मुड़ जाते थे कदम,
बूंदे गयी थी थम
बदलियां इतरा रही थी,
तरंगित कर देनेवाली धुन
तट ने कहा सुन
और जिंदगी गुन,

मंद लहरों में भी
होती है ऊर्जा,
किनारे के पत्थरों से टकरा
अद्भुत ध्वनि हो रही थी
निर्मित,
निमित्त,
पल भर में लगा
लुप्त हो गए विषाद, मनोविकार,
अति हल्का होने की अनुभूति
स्थितिप्रज्ञ जैसी उभरी स्मिति,

तट के पत्थरों से टकरा
करती निर्मित विभिन्न धुन
जैसे कर रही हों वर्णित
जीवन की विविधताएं
और दे रही थीं संकेत
लहरें बन जाइए,
बाएं कान से कुछ
तो दाएं कान से कुछ
आती विभिन्न ध्वनियां,
संभवतः रही हों प्रणेता
अत्याधुनिक स्पीकर निर्माण प्रणेता,

तुम्हारी साड़ी की
चुन्नटों की तरह लहरें
मंद गति से उठ रही थीं
जहां कवित्व था लिए श्रृंगार
जैसे कसर रही हों निवेदन
उन्माद में छूना मत वरना
खुल जाएंगी चुन्नटें,
सागर में भी कितना
हया की अदा है,

लौट पड़ा घर को
मैंग्रोव या समुद्री घास के
बीच की कच्ची, पथरीली राह
जहां असंख्य चिड़ियों, पक्षियों का
संगीत एक किलोमीटर तक
यही बतलाता है कि
सागर से लेकर मैंग्रोव तक
सरलता, सहजता, संगीत साम्य
मानव तू सृष्टि सा स्व को साज।

धीरेन्द्र सिंह



39.07.2024

11.56





हताश

 खिड़कियां बंद कर रोक रहे हैं प्रकाश

कमरा कैसे रोशन सोचे न वह हताश


प्रतिबंधन आत्मिक होता, नहीं भौतिक

विरोध वहीं जहां संबंध निज आत्मिक

ब्लॉक करने पर भी झलकता उजास

कमरा कैसे रोशन सोचे न वह हताश


हृदय फूल खिलते जैसे खिलें जंगल

खिलना न रुक पाए हृदय करे दंगल

विरोध, प्रतिरोध ढक न पाए आकाश

कमरा कैसे रोशन सोचे न वह हताश


याद न आए जो समझिए गए हैं भूल

भुलाने का प्रयास जमाए गहरा मूल

यह है नकारात्मक वेदना प्यारा सायास

कमरा कैसे रोशन सोचे न वह हताश।


धीरेन्द्र सिंह

30.07.2024

09.07