मंगलवार, 20 अगस्त 2024

कुहूक

 तुम्हें जो सजा दूँ शब्दों से तुम्हारे

महकने लगेंगे वह सारे किनारे

जहां कामनाओं का उपवन सजा

प्रार्थना थी करती सांझ सकारे


एक संभावना हो दबाई कहीं तुम

कई भावनाएं मधुर तुम्हें हैं पुकारे

तुम्हें खोलने को खिल गईं कलियां

सूरज भी उगता है द्वार तुम्हारे


उठा लेखनी रच दो रचना नई

अभिव्यक्तियां भाव हरदम पुकारे

कल्पनाएं सजी ढलने को उत्सुक

प्रीति रीति साहित्य कुहूक उबारे।


धीरेन्द्र सिंह

20.08.2024

21.00


ज़िरह

 आपसे मिल नहीं सकता कभी

क्यों लग रहा सब हासिल है

बेमुरव्वत, बेअदब सिलसिला है

वो मग़रूर हम तो ग़ाफ़िल हैं

 

चंद बातों में खुल गए डैने

यूं लगे आसमां भी शामिल है

उड़ रहा तिलस्म का उठाए बोझा

दिल ही मुजरिम दिल मुवक्किल है

 

उनकी अदालत में डाल दी अर्जियां

अदालत ढूंढ रही कौन कातिल है

मुकर्रर का कुबूल है कह दिए उनको

ज़िरह में देखिए होता क्या हासिल है।

 

धीरेन्द्र सिंह

21.08.2024

14.04