शनिवार, 6 जनवरी 2024

अक्षत

 दरवाजे की घंटी ने जो बुलाया

देख सात-आठ लोग चकमकाया

ध्यान से देखा तो केसरिया गले

कहे राममंदिर हेतु अक्षत है आया


श्रद्धा भाव से बढ़ गयी हथेलियां

लगा कोई नहीं मेरे राम दरमियां

राममंदिर फोटो संग इतिहास पाया

जो देखता पढ़ता था वह अक्षत है आया


कुहूक एक उठी सारी गलियां जगी

राम कण-कण में अक्षत की डली

बारह दीपक जलाने का था निदेश

 कह जै श्रीराम बढ़ गयी वह टोली


व्यक्ति में भी प्रभुता हुई दृष्टिगोचित

राम मर्यादा से हो भला क्या उचित

राम से ही सृजित संचित आत्म बोली

भजन गूंज उठा दिया ताल मन ढोली


सर्जना की अर्चना का भव्यता साक्षात

अक्षत बोल पड़ा सनातन ही उच्छ्वास

भारत संग विश्व गुंजित हो प्रीत मौली


विवाद निर्मूल सारे जीव राम टोली।


धीरेन्द्र सिंह

07.01.2024

08.28

बहुत दूर से

 बहुत दूर से वह सदा आ रही है

उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही है


छुआ भाव ने एक हवा की तरह

हुआ छांव सा एक दुआ की तरह

वह तब से मन बना आ रही है

उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही है


सदन चेतना के हैं सक्रिय बहुत

मनन वेदना के हैं निष्क्रिय पहुंच

भावनाएं दूर की कैसे बतिया रही हैं

उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही है


अक्सर कदम दिल के चलते चलें

कोई क्या नियंत्रण यह हैं मनबहे

चाहतें चलते मुस्का चिहुंका रही हैं

उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही हैं


कल्पनाओं की अपनी है दुनिया निराली

यहां न रोकटोक है ना कोई सवाली

टाइपिंग यहां अपने में इतरा रही है

उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही हैं।


धीरेन्द्र सिंह


06.01.2024

19.33

छपवाली

 जितनी छपी है क्या सब पढ़ ली

फिर क्यों अपनी अभी छपवाली


भाषाओं में नित नए सृजन तौर

मौलिक हैं कितने कौन करे गौर

अपनी महत्ता क्या सब में बढ़ाली

फिर क्यों अपनी अभी छपवाली


क्या लिखे क्यों लिखे सिलसिले

पहले भी यही लिखा सत्यमिले

लेखन से क्या रचनात्मकता खिली

फिर क्यों अपनी अभी छपवाली


पुस्तक प्रकाशन शौक और नशा

रचनाकार बिन पके लिखा वो फंसा

कई प्रकाशकों के झांसे गली-गली

फिर क्यों अपनी अभी छपवाली


अनेक पुस्तक लेखक लगें निरुत्तर

पुस्तक की चाह जैसे पुत्री-पुत्तर

हिंदी इस जंजाल की ज्ञात क्या कड़ी

फिर क्यों अपनी अभी छपवाली।


धीरेन्द्र सिंह


06.01.2024

15.32