सोमवार, 19 अगस्त 2024

प्रीति

 मन उलझा एक द्वार पहुंच

प्रीति भरी हो रही है बतियां

सांखल खटका द्वार खुलाऊँ

डर है जानें ना सब सखियां


बतरस में भावरस रहे बिहँसि

गति मति रचि सज रीतियाँ

नीतियों में रचि नवपल्लवन

सुसज्जित पुकारें मंज युक्तियां


देख रहे संस्कार पुकार मुखर

दिलचाह उछलकूद निर्मुक्तियाँ

या तो परम्परा की रूढ़ियों गहें

या वर्तमान गति की नियुक्तियां।


धीरेन्द्र सिंह

21.08.2024

12.10


रक्षा बंधन

 खुला रुंधा स्वर दिव्यता पसर गयी

राखी का त्योहार तृष्णापूर्ति कर गयी

प्रत्येक जुड़ा रचनाकार कुछ लिख गया

प्रत्येक मिठास सिंचित तर कर  गयी


भावनाओं के व्यूह में अपने ही छत्रप

चेतनाएं संकुचित स्वार्थ भेद भर गई

रणदुदुम्भी भी बोल चुप निष्क्रिय रही

वेदिकाएं प्रज्ज्वलित नारियां विकल भई


बहन एक भाव या कि मात्र अनुभूति

रक्षाबंधन अभिनंदन फिर धर गयी

बहन भाव का निभाव स्वभाव बसे

नारी वेदना क्यों समाज अधर भई


रक्षा पर्व है गर्व उत्कर्ष बहन-भाई

इसी समाज में युवती दे रही दुहाई

रक्षा बहन का भाई का निज धर्म

नारी यातना रुके बंधन की बधाई।


धीरेन्द्र सिंह

20.08.2024

00.53