शुक्रवार, 23 अगस्त 2024

कुंवारी सांझ

 एक कुंवारी सांझ हो तुम

कोमल मद्धम आंच हो 

दिन बहुत छका चला अब

एक तुम्ही सहेली साँच हो


उपवन में सब फूल सूख रहे

तुम ही करुणा गाछ हो

जरा ठहर सुस्ताए जिंदगी

खुश मौसम का उवाच हो


दिन षड्यंत्र कर चलता बना

वह ढूंढ लिया जहां कांच हो

रात्रि बेला कर रही तैयारी

कब, कैसे उपद्रवी नाच हो


हे सांझ कुंवारी तुम ही कहो

कहां ऊर्जा संचयन खास हो

इधर-उधर जल रही आग है

बुझ जाए ऐसी कोई पांत हो।


धीरेन्द्र सिंह

23.08.2024

16.39




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