बरसात आती है
जैसे आती हैं आप
घटाएं आती हैं
जैसे आपकी यादें,
वह तपिश क्षीण हो जाती
जैसे बादलों से ढंका सूर्य
और परिवेश पुलकित हो
बारिश की बूंदों की करें प्रतीक्षा
जैसे मेरे नयन ताकें
आपकी कदमों की आहट,
कभी सोचा है आपने ऐसा ?
ना ही बोलेंगी, सकुचाती,
घटाएं भी तो चुप
अपने में सिमटी
ठहरी रहती हैं स्थिर
धरा को देखती
और मैं सोचता हूँ
कब मेरी दृष्टि समान
देख ली बदलियां आपको
और चुरा लीं
आपकी अदा जैसे
मेरे कुछ प्रश्नों पर
रहती हैं ठहरी मौन
और चली जाती है प्रतीक्षा
अंततः थक कर,
अचानक तेज हवाएं
बिजली का कड़कना
और झूमकर
बदलियों का बरस जाना
बस आपकी इसी मुद्रा हेतु
पुरुष एक साधक की तरह
रहता है नारी आश्रित
जहां झूमने के पल होते हैं।
धीरेन्द्र सिंह
23.05.2025
09.45