सोमवार, 10 मार्च 2025

ऑनलाइन रिश्ता

 कोई भाई, कोई अंकल, गुरु कोई प्रियतम

ऑनलाइन क्या हुआ रिश्तों का यह चलन


कितनी आसानी से जुड़ जाते हैं यहां लोग

व्यक्तित्व न रखें एकल हो रिश्ते का भोग

संस्कार है या संगत या असुरक्षा का दलन

ऑनलाइन क्या हुआ रिश्तों का यह चलन


व्यक्ति कहीं एकल निर्द्वंद्व नहीं है दिखता

उपनाम या विशेषण में रहता गुमसुम सिंकता

सब शीत लगें भीतर अकेले में प्रगति गलन

ऑनलाइन क्या हुआ रिश्तों का यह चलन


एक भय है समाज में हर पग पर जोखिम

व्यक्ति मिलता नहीं सम्पूर्ण खोजें दैनंदिन

स्वतंत्र व्यक्तित्व उभारे नव ऊर्जा का दहन

ऑनलाइन क्या हुआ रिश्तों का यह चलन।


धीरेन्द्र सिंह

11.03.2025

05.44

रंग

एक मीठी-मीठी मद्धम-मद्धम

सांस तुम्हारी आस दुलारे

होली आई अंग रंग लाई

उडें गुलाल विश्वास पुकारे


छू लेता रंग लगे छू गयी वफ़ा

मन अकुलाया मन कौन बुहारे

सांसे जिसको बो रहीं मद्धम

छूटा साथ रहा बंधा चौबारे


साथ नहीं पर लौट आती सांसे

साँसों से मिल गाए मन ढारे

बाग-बगीचे सी साँस सुगंध

क्यों लगता पी लिया महुवा रे


इतनी छूट कहां पर मिल पाए

हाँथ गुलाल उड़ि कपोल सँवारे

सांस-सांस बस अहसास पास

झांक-झांक रंग जमा उन द्वारे।


धीरेन्द्र सिंह

10.03.2025

13.05