बुधवार, 1 दिसंबर 2010

गुंईया बन गए हम

अभी भी सलवटें सुना रहीं हैं दास्तान 
मौसम ने ली थकन भरी अंगड़ाई है
चादर में लिपटी   देह गंध भी बुलंद है

एक अगन हौले से  गगन उतर आई है

मन के द्वार पर है बुनावट सजी रंगीली

समा यह बहकने को फिर बौराई है
खनकती चूड़ियों में प्रीत की  रीत सजी
उड़ते चादर में सांसो की ऋतु छाई है.

एक अनुभव में ज़िन्दगी, बन्दगी सी लगे
शबनमी आब है, मधु बनी तरूणाई है
छलकते सम्मान में   निज़ता का आसमान है
चादर पर पसरी रोशनी फिर खिलखिलाई है.

इस चादर में हमारे गागर के हिलोरे हैं

कुछ अपने हैं कुछ सुनामी दे पाई है
बांटने से गुनगुनाए ज़िन्दगी की धूप
गुंईया बन गए हम यह बोले तरूणाई है.