सोमवार, 14 अक्तूबर 2024

अनुगूंज

 एक अनुगूंज

मद्धम तो तीव्र

सत्य को कर आलोड़ित

यही कहती है,

धाराएं वैसी नहीं

जैसी दिखती

बहती हैं;


मौलिकता

या तो कला में है

या क्षद्म प्रदर्शन में

फिर व्यक्तित्व क्या है

परिस्थितियों के अनुरूप

मेकअप किया एक रूप

या बदलियों में

उलझा धूप;


पगडंडियों की अनुगूंज

खेत-खलिहान से होते

दूब पर कंटक पिरोते

गूंजती है मद्धम

तलवों की आह

दब जाती है,

क्या अब यही

जीवन थाती है ?


गूंज बन पुंज

हो रहा अनुगूंज

कोई रहा देख

किसी को रहा सूझ,

जिंदगी ठुमक कहती

मनवा मन से बूझ।


धीरेन्द्र सिंह

15.10.2024

09.26