शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

मस्त कलंदर

 बस आप ही नहीं समंदर

सभी ने छुपाया मन अंदर

यह दुनिया का उपहार है

व्यक्ति बन जाता है जंतर


अधूरी हैं अक्सर अभिलाषाएं

जीवन भूलभुलैया जंतर-मंतर

पर मानव कब रुकता-झुकता

पाने का संघर्ष नित निरंतर


यह भी चाहूं कब उसे पाऊं

मन मोहित चाहे सब सुंदर

भीतर घाव नयन बस छांव

कोशिश जग जाए कोई मंतर


प्यार है तो गम मिलता है

प्यार का कौन यहां धुरंधर

एक जीवन लिए कई सीवन

कहना दमादम मस्त कलंदर।


धीरेन्द्र सिंह

22.02.2025

19.27