बस आप ही नहीं समंदर
सभी ने छुपाया मन अंदर
यह दुनिया का उपहार है
व्यक्ति बन जाता है जंतर
अधूरी हैं अक्सर अभिलाषाएं
जीवन भूलभुलैया जंतर-मंतर
पर मानव कब रुकता-झुकता
पाने का संघर्ष नित निरंतर
यह भी चाहूं कब उसे पाऊं
मन मोहित चाहे सब सुंदर
भीतर घाव नयन बस छांव
कोशिश जग जाए कोई मंतर
प्यार है तो गम मिलता है
प्यार का कौन यहां धुरंधर
एक जीवन लिए कई सीवन
कहना दमादम मस्त कलंदर।
धीरेन्द्र सिंह
22.02.2025
19.27