रविवार, 4 फ़रवरी 2024

सूरज

 मुट्ठी में भरकर शाम सिंदूरी सूरत

जो चलने लगा बीच बस्तियां

चमकने लगे कई सूरज नयन


खुल गए सारे दरवाजे खिड़कियां


तंग गलियों थी ठुसी बैठी चाल

समेटकर अपने भीतर अंधियार कश्तियाँ

ना सोती ना उठती लगातार जगती

एक सूरज की चाहत लिए हस्तियां


पकड़ हाँथ मेरा कोई एक बोला

सूरज से जुड़ी उन सबकी मस्तियाँ

दूजा बोला रुको जरा तो कहो

क्या लूटने को आमादा हैं गश्तियाँ


हाँथ छूटा जो सूरज, लपक सब पड़े

रोशनी में दिखी जिंदगी कुलबुलाती दरमियां

एक तड़प ले उठी, हुंकारती आवाज़ें

टुकड़ा-टुकड़ा हुआ सूरज,चाह को शुक्रिया।


धीरेन्द्र सिंह

04.02.2024

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