यही मेरी पूजा और धूप अगरबत्ती
आत्मा को छूँ सकूं निर्मित हो हस्ती
तुम में ही है देवत्व शून्य बोल रहा है
इंसान ही भगवान है सच ना मस्ती
हाड़-मांस ही नहीं प्राणी में झंकार है
जिंदगी गहन अनुभूति प्राणी में रचती
नयन, स्पर्श, भाव में ही जीव निभाव
कुछ इसी झुकाव में पूजा वेदी सजती
अब तक कभी न मांगा मंदिर से कुछ
मंदिर में जीव दीप्ति क्या न रचती
मूर्ति ऊर्जा को कर प्रणाम, जीव देखता
बंद नयन जुड़े हाँथ, भावना की शक्ति
ईश्वर मुझे मिलते मिल जाती देवियां
मेरी अर्चना है भौतिक आधार ना विरक्ति
जब भी खिला निमित्त रहा है कोई प्राणी
प्राणी में ईश्वर इसलिए प्राणी में अनुरक्ति।
धीरेन्द्र सिंह
29.03.2025
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