शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

कीजिए सबको साधित

आधुनिकता भव्यता का शीर्ष मचान है
परंपराएं मुहल्ले की लगे एक दुकान है
द्वंद यह सनातनी फैसला रहे सुरक्षित
इसलिए हर मोड़ का निज अभिमान है

सोच का खुलापन लगे विकृत ज्ञान है
अधखुले सत्य का होता सम्मान है
रोशनी के लिए होता पूर्व लक्ष्यित
इतर दिशा दर्शाना महज़ अज्ञान है

संस्कृति कटघरे में फिर भी गुमान है
बस धरोहर पूंजी शेष मिथ्या भान है
ज्ञान कुंठित हो रही प्रगति बाधित
भूल रहे भारत इंडिया मेरी जान है

अपनी-अपनी डफली अपना गान है
चटख रही धूरी दिखता आसमान है
आप उठिए कीजिए सबको साधित
भारत का गौरव लिए स्वाभिमान है.

अपनत्व

लिए जीवन उम्र की भार से
एक हृदय ईश्वरी पुकार से
जीवन के द्वंद्व की ललकार से
बुढ़ापे को दे रहा अमरत्व है

ले आकांक्षा स्वप्निल सत्कार से
एक मन आंधियो के अंबार से
लिप्त जीवन के बसे संसार से
वृद्धता मचले जहां ममत्व है

दृष्टि में सृष्टि की ख़ुमार से
तन की लाचारी भरी गुहार से
भावनाओं को मिली बुहार से
कृशकाया से छूट रहा घनत्व है

अंजुरी में छलकते दुलार से
आंगन के कोलाहली बयार से
कुछ नहीं बेहतर परिवार से
बुढ़ौती का यही अपनत्व है