मन में हैं कितनी
स्वीकृति, अस्वीकृतियाँ और
अभिव्यक्ति भी जीवन में
खूंटों से बंधी है,
व्यक्ति
खूंटे की रस्सी जितनी
नाप सकता है दूरी
यह दुनियादारी है
नहीं मजबूरी,
मजबूर तो बंधनहीन हैं
जिन्हें नहीं मिलते
खूंटे की रस्सी से
बढ़नेवाले आगे,
कोल्हू के बैल की तरह
गतिशीलता देती है
प्रगति की अनुभूति
कौन करे विश्लेषण
इस क्षद्म नीति का?
अकुलाए, बौराए
घूमते गोल-गोल
अपनी परिधि में
स्थापित करते तादात्म्य
उभरती घास से,
टपकती बूंद से,
अपने ही कदमों के
रचित इंद्रधनुष से,
मौलिकता
गढ़ने के बजाय
मान लेना
अब का चलन है,
नही उखाड़ सकते खूंटा
यदि किए प्रयास तो
बोल उठेंगे लोग
संस्कार है
संस्कृति है
सभ्यता है
जिसका आधार है खूंटा,
खूंटे से अलग सोचना
उखड़ जाना है
खूंटे की रस्सी तक
दुनिया, जमाना है।
धीरेन्द्र सिंह
14.04.2025
16.06