रविवार, 1 जून 2025

चश्मा

 तुम भी मुझे उतार दी चश्मा की तरह

लेन्स कमजोर लग रहा था हर शहर


कहा कि साफ कर लो धूल है बहुत

नई चाह में बीमार सा घूमे दर बदर


मारा कुछ छींटे धूल लेंस से तो हटे

गर्दन घुमा लिया तुमने जैसे हो डगर


हर तन कमजोर हो अक्सर नहीं होता

मन भटक चला था बिना अगर-मगर


क्या कर लिया हासिल कुछ तो न दिखे

बवंडर से जा जुड़े उड़ान के कुछ पहर


लिख रहा हूँ तुमको याद जो आ गयी

चश्मा के लेंस संग झांकती वही नजर।


धीरेन्द्र सिंह

02.06.2025

09.55



यह लोग

 यह लोग जो संस्कार की बात करते हैं

जाने शोर किस अधिकार की करते हैं


प्यार यदि छलक सतह पर है निखरता

यही लोग प्यार का धिक्कार करते हैं


यह कभी लगा नहीं शुष्क मन इनका

मनोभावों में यह भी श्रृंगार करते हैं


सारा संस्कार प्यार रचित बातों पर ही

संस्कार बांधकर क्यों व्यवहार करते हैं


भ्रष्टाचार, झूठ बोलना, डीपी गलत लगा

व्यक्तित्व मुखौटा अस्तित्व नाद करते हैं


ईश्वर भी है प्यार तो प्यार भी है ईश्वर

नश्वर बारंबार नव ईश्वर पुकार करते है।


धीरेन्द्र सिंह

01.06.2025

13.00