सोमवार, 20 जनवरी 2025

संस्कार

 संस्कारों की

परत दर परत

ढाल लेती है व्यक्तित्व को

और

उंसमें लिपटते, बिहँसते 

जीवन में रचते, सजते

ठौर

करता है गुणगान

होता है निर्मित आदर्श

बौर

सिद्धांतों के फरने लगते हैं;


विश्व की सांस्कृतिक हवाएं

फहराती हैं जुल्फों को

असहज उन्मुक्त दे अंदाज

तौर

होता है आहत तो

कर धारित असमंजस

करने लगता है अपरिचित मंजन

गौर

स्वयं को या समाज को

या विश्व रचित हवाएं

किधर ताके किधर झांके

नयन क्रंदन;


संस्कारों की तहें

उड़ने नहीं देती

चुगने नहीं देती

ललचाती वैश्विक हवाएं

मौर्य

भारत का ही कहें

विश्व कई अपनाए

शौर्य

कुछ नया कर पाने को

लपके और बुझ जाए,


संस्कार की तहें

कुछ और तहें लगा जाएं।


धीरेन्द्र सिंह

20.01.2025

15.04