शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

यह प्रीत कहाँ से पाई है

 
बोलो प्रिये कहाँ से इतनी प्रीत तुम्हें मिल पाई है

हर चहरे पर लगा मुखौटा मौलिकता की दुहाई है



सूखे सियाह चहरे पर चिपकी उदास सी मुस्कानें

सफल, संपन्न बन जाने को हैं हुए सब दीवाने

प्यार हाशिए पर बैठा नित होती उसकी रंगाई है

भावनाएं रहें तिरस्कृत पूछें सब क्या कमाई है



वक्त बवंडर सा लगता है तिनके सा व्यक्तित्व

ऊपर से चिकने-चुपड़े बिखरा-बिखरा है निजत्व

अधरों पर चिपकी मुस्कान दिल अवसर सौदाई है

कौन है असली कौन है नकली वक्त की दुहाई है



जिसने भी दिल से बोला है कहते सब भोला है

अपनी-अपनी सबकी तराजू सबका अपना तोला है

अजब दौड़ है न कोई ठौर है दिखती चतुराई है

जिधर देखती एक चमक दुनिया लगती धाई है



ऐसी गति में गति न मिले बगिया कुम्हलाई है

खिली-खिली सी लगो यह प्रीत कहाँ से पाई है  





भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता, 
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है 
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.