शनिवार, 31 मार्च 2018

एकात्म

मुक्त कितना हो सका है मन
भाव कितने रच रहे गहन
आत्मा उन्मुक्त एक विहंग
ज़िन्दगी क्रमशः बने दहन

नित नए भ्रम पुकारे उपलब्धियां
सोच पुलकित और मन मगन
जीव की जीवंतता अनबूझी
सूक्ष्म मन अब लगे पैरहन

देख भौतिक आकर्षण विचलन
फिसलन खींच रही पल हरदम
अनियंत्रित दौड़ ले बैसाखियां
लक्ष्य का अनुराग स्वार्थी मन

प्रकृति है दर्शा रही उन्नयन राहें
मति भ्रमित तिरस्कृत उपवन
अब कली, भ्रमर, पराग, गंध पुष्प
साध्य नहीं काव्य की लगन

जीव, जीवन, आत्मन, मनन
अंतरात्मा से प्रीत घटा घनन
स्नेह, नेह, ध्येय की स्पष्टता
उन्नयन एकात्मिक हो तपन।

धीरेन्द्र सिंह

तुम

कौंध जाना वैयक्तिक इयत्ता है
यूं तो सांसों से जुड़ी सरगम हो
स्वप्न यथार्थ भावार्थ परमार्थ
कभी प्रत्यक्ष तो कभी भरम हो

अनंत स्पंदनों के सघन मंथन
वंदन भाव जैसे नया धरम हो
खयाल अर्चना संतुष्टि नैवेद्य
जगराता का तासीर खुशफहम हो

विद्युतीय दीप्ति लिए मन व्योम लगे
चाहत में घटाओं सा नम हो
अंतराल में बूंद सी याद टपके
जलतरंग पर थिरकती शबनम हो

निजता के अंतरंग तुम उमंग
सुगंध नवपल्लवन जतन हो
अकस्मात आगमन उल्लसित लगे
तुम हर कदम हर जनम हो।

धीरेन्द्र सिंह

गुरुवार, 29 मार्च 2018

भोर

भोर की पलकें और चेहरे पर जम्हाई
मन में राधा सी लगे रागभरी तन्हाई
कोमल खयाल सिद्धि जीवन की कहे
एक शुभ दिन आतुर व्यक्त को बधाई

सुबह के संवाद अक्सर अनगढ़ बेहिसाब
तैरता मन उड़ता कभी दौड़ता अमराई
और एहसासों का बंधन प्रीत क्रंदन
युक्तियां असफल कई डगर डगर चिकनाई

छुट्टी हो तो बिस्तर ले करवटें पकड़
बेधड़क न सुबह लगे न अरुणाई
अलसाए तन में सघन गूंज होती रहे
तर्क वितर्क छोड़ मति जाए मुस्काई

और कितना सुखद निढाल ले ताल
बवाली भावनाएं नव माहौल है गुंजाई
कोई न छेड़े प्रीत योग की कहें क्रियाएं
नवनिर्माण नवसृजन  निजता की तरुणाई।

धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 28 मार्च 2018

आधुनिक जीवन

बूंदें जो तारों पर लटक रही
तृषा लिए सघनता भटक रही
अभिलाषाएं समय की डोर टंगी
आधुनिकता ऐसे ही लचक रही

चुनौतियों की उष्माएं गहन तीव्र
वाष्प बन बूंदें शांत चटक रही
बोल बनावटी अनगढ़ अभिनय
कुशल प्रयास गरल गटक रही

जीवन में रह रह के सावनी फुहार
बूंदें तारों पर ढह चमक रही
कभी वायु कभी धूप दैनिक द्वंद
बूंदों को अनवरत झटक रही

अब कहां यथार्थ व्यक्तित्व कहां
क्षणिक ज़िन्दगी यूं धमक रही
बूंद जैसी जीवनी की क्रियाएं
कोशिशों में ज़िन्दगी खनक रही।

धीरेन्द्र सिंह

मंगलवार, 27 मार्च 2018

ऑनलाइन प्यार

मधुर मृदुल करतल
ऐसा करती हो हलचल
स्मित रंगोली मुख वंदन
करती आह्लादित प्रांजल

सम्मुख अभ्यर्थना कहां
मन नयन पलक चंचल
फेसबुक, वॉट्सएप, मैसेंजर
दृग यही लगे नव काजल

मन को मन छुए बरबस
भावों के बहुरंग बादल
अपनी मस्ती में जाए खिला
मन सांखल बन कभी पागल

ऑनलाइन बाट तके अब चाहत
नेटवर्क की शंका खलबल
वीडियो कॉल सच ताल लगे
अब प्रत्यक्ष मिलन हृदयातल।

धीरेन्द्र सिंह

शनिवार, 24 मार्च 2018

जीवन मूल्य

पता नहीं जीवन समझाता नहीं
लीक पर चलना भाता नहीं

लोग कहते हैं जीवन गणित है
हर जीवन लचीला नमित है
मैं मनमौजी जीवन ज्ञाता नहीं
लीक पर चलना भाता नहीं

जो सत्य है वहीं जीवन लक्ष्य है
सभी अपूर्ण फिर भी दक्ष हैं
आवरण स्वीकार्यता आता नहीं
लीक पर चलना भाता नहीं

उमड़ रही भीड़ कारवां का तीर
रंक को देखिए शीघ्र बना अमीर
व्यवस्था, जुगाड से बना नाता नहीं
लीक पर चलना भाता नहीं

हो रहा समाज विमुख उसकी मर्ज़ी
भीड़ हिस्सा बन ना भाए खुदगर्जी
राह निर्मित कर नवीन जगराता कहीं
लीक पर चलना भाता नहीं

सबकी अपनी सोच है सिद्धांत है
सत्यता से प्रीत वह न दिग्भ्रांत है
जीवन मूल्य से हटकर अपनाता नहीं
लीक पर चलना भाता नहीं।

धीरेन्द्र सिंह

मंगलवार, 20 मार्च 2018

कार्यालय

कारवां के बदलते अंदाज़ हैं
कैसे कहें नेतृत्व जाबांज है

सूख रही बगीचे की क्यारियां
फिर भी टहनियों पर नाज़ है

सिर्फ कागजों की दौड़ चले
फोटो भी छुपाए कई राज हैं

एक-दूजे की प्रशंसा ही बानगी
कार्यालयों में यही रिवाज है

कारवां से अलग चलना नहीं
नयापन अक्सर लगे बांझ है

सांप सीढ़ी का खेल, खेल रहे
बहुत कठिन मौलिक आवाज है।

धीरेन्द्र सिंह

सोमवार, 19 मार्च 2018

बालियां

फूलों से लदी झूमे जो डालियाँ
तुम्हारी बालियां

भौरें की परागमयी लुभावनी पंखुड़ियां
तुम्हारी बालियां

तट की तरंगें बगुला की युक्तियां
तुम्हारी बालियां

भावों का वलय तृष्णा पुकार दरमियाँ
तुम्हारी बालियां

होती होंगी कान्हा-गोपी की गलियां
तुम्हारी बालियां

कपोल का किल्लोल मनभावन चुस्कियां
तुम्हारी बालियां।

धीरेन्द्र सिंह

हिंदी

चलत फिरत चौपाल चहुबन्दी
कहते सबकी जुबान है हिंदी
समरसता युग्म एकता रचाए
रश्मियों की मुग्धजाल है हिंदी

सब जानें बातों की ही हिंदी
भाषाजगत में भी चकबंदी
भाषा कामकाजी विरक्त है
दिग दिगंत जैसे शिव नंदी

कभी लगे भरमाती हिंदी
लिखित प्रयोग न पाती हिंदी
ढोल नगाड़े पर जो थिरके
ऐसी ही हिंदी हदबंदी

सुने प्रयोजनमूलक हिंदी नहीं
हस्ताक्षर को भी न भाए हिंदी
लिखित घोषणाएं हुईं बहुत
फाइल साज बजे पाखंडी।

धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 7 मार्च 2018

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस

शब्दों की गुहार है उत्सवी खुमार है
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस झंकार है

शहर, महानगर व्यस्त हैं आयोजन में
अर्धशहरी, ग्रामीण मस्त अनजानेपन में
जो शिक्षित उनका ही दिवस रंगदार है
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस झंकार है

शिक्षा प्राप्त नहीं लगी घर के कामकाज में
नारी अधिकार का ज्ञान नहीं सीमित राज में
चौका, चूल्हा, बर्तन, भांडा जीवन अभिसार है
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस झंकार है

शिक्षित नारी रचती फुलवारी एक आंदोलन में
फेसबुकिया उन्माद चले नव रचना बोवन में
ऐसे आंदोलन, लेखन का गावों को दरकार है
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस झंकार है

नारी को नारी सिखलाये लाज,शर्म के आंगन में
नारी का सुखमय जीवन सास, ससुर, पिय छाजन में
बचपन से नारी व्यक्तित्व में परंपराएं लाचार हैं
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस झंकार है

शिक्षा ही ब्रह्मास्त्र है जीवन के इस जनमन में
शिक्षित नारी सुदृढ स्थापित भुवन, चमन में
नारी ही परिजन का प्रतिबद्ध पतवार है
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस झंकार है।

धीरेन्द्र सिंह

सोमवार, 5 मार्च 2018

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी को जिंदादिली नहीं
इंसां कहीं तो ज़िन्दगी कहीं
फकत ईमानदारी ही जरूरी
बाकी सब तकल्लुफ वहीं का वहीं

जरिया जज्बात हो जरूरी नहीं
आबाद खुशफहम चाहे रहे कहीं
फकत दिल्लगी पर रहे अख्तियार
बाकी सब जिल्लतें वहीं का वहीं

नुमाइश की तलबगारी भी नहीं
हसरतें भले कुलांचे भरे कहीं
फकत शख्सियत की तीमारदारी
बाकी सब उल्फतें वहीं का वहीं

माशूका हो करीब जरूरी तो नहीं
इश्क़ ज़र्द सूफियाना हो तो कहीं
फकत एहसासों की नर्म चादर रहे
बाकी सब महफिलें वहीं का वहीं।

धीरेन्द्र सिंह

नई पीढ़ी

अदब दब अब गुमाँ हो गई
यही सोच नया पीढी भी नई

संस्कार के आसार अब कहां
विद्या कभी नौकरी यहां-वहां
परिवेश आत्मचिंतन धुंधला गई
यही सोच नया पीढ़ी भी नई

न रहा संयुक्त परिवार दादा-दादी
इलेक्ट्रॉनिक युग सुनाए मुनादी
हसरतें कब मिलीं कुम्हला गईं
यही सोच नया पीढी भी नई

समाज, देश का रहा न कोई सोच
अंतरराष्ट्रीय बनने की नोचम नोच
उच्चता की मृगतृष्णा जड़ छोड़ गई
यही सोच नया पीढ़ी भी नई

धीरेन्द्र सिंह

व्यक्तित्व

खुद से बने वो प्राचीर हो गए
अनुगामी जो रहे तामीर हो गए

स्वनिर्माण भी है बुनियादी संस्कार
पखारा किए खुद को और धो गए

बेजान ही प्रवाह में उछलता खूब
आते हैं जाते हैं अनेकों खो गए

स्वनिर्माता खुद का विधाता भी
पढ़ने की कोशिशों में लोग रो गए

खुद को गढ़ने, पढ़ने में हो व्यतीत
अतीत दर्शाता कहे लो वो गए

फौलाद सी सख्ती मक्खनी कोमलता
ऐसे ही लोग उर्वरा बीज बो गए।

धीरेन्द्र सिंह

बिंदिया

           बिंदिया

एक आग मसल अंगुलियों में
बिंदिया बना दूं
भाल पर ताल ज़िन्दगी का दे
सरजमीं सजा दूं
सम्मोहित दृष्टि की वृष्टि में
तिरोहित आकांक्षाएं
रूप के ओ अप्रतिम अंदाज़
आ दिलजमीं बना दूं

अनूठेपन धारित आलोकित रूप
रश्मियाँ छंटा दूं
लपेटकर अपनी अंगुलियों में प्रीत
युक्तियां अटा दूं
सुर सितार कपाल ध्वनित करे
समर्पित बेसुध अंगुलियां
प्रेम गहनता समेट बिंदिया की
रीतियां बसा दूं

एक आग मसल अंगुलियों में
बिंदिया बना दूं
ललाट लहक उठे ज्वाल प्रीत
सिद्धियां बहा दूं।

धीरेन्द्र सिंह