गुरुवार, 3 नवंबर 2011

एकनिष्ठता हटो


दो साँसों के जहां में एकनिष्ठ हो जाऊंगा
इतने लुभावन में कैसे सृष्टि से बच पाऊँगा
प्रीत की रीति में मनमीत की होती प्रतीति
रीति से भटका तो अतीत मैं बन जाऊंगा

एक चाहत में चौतरफा बन्दिशें अनगढ़
राह बहके ना, हो एकाधिकार बढ़चढ़
घुटन इतनी तो कैसे सुरभि जाल पाऊँगा
प्यासे सुरों में कैसे गीत ढाल पाऊँगा

प्यार कब ठहरा कब रुकी यह दुनिया
यार है गहरा, चाहा जब झुकी दुनिया
शक्ति असीमित विजय कहाँ पाऊँगा
हार कर ही प्रीति पताका फहराऊंगा

एक समर्पण राधा-कृष्ण सरीखा जैसा
मिला सौंदर्य बना दिल सूर्यमुखी जैसा
खुद से खुद को खींचते कैसे चल पाऊँगा
एकनिष्ठता हटो वरना ढल जाऊंगा  




भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

फिर वही खुमारी है


शब्दों के मुंह पर किलकारी है
ज़ुल्फ चाहत ने फिर सँवारी है
भाव भींगे से उनींदे से अलसाए
छा गयी फिर वही खुमारी है

कितने दिन दूर रहा हूर से
सदाएँ भी न मिली नूर से
ज़िंदगी की भी क्या दुश्वारी है
कभी प्यारी तो लगे खारी है

वक़्त के हाशिये का रंग अलग
बदल ना पाये चाहतों की छलक
पलक झपकते दिखे लाचारी है
कि लगे प्यारी यह दुनियादारी है

जुल्फ के साये सा आश्रय कहाँ
साँसों की सरगमों सा प्रश्रय कहाँ
मौन स्पर्शों में भी खुद्दारी है
चंदा-चकोर सी यह चित्रकारी है।






भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता 
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता, 
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है 
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.