बुधवार, 29 दिसंबर 2010

चॉद,चूल्हा

चॉद, चूल्हा और चौका,चाकर
क्या पाया है इसको पाकर
खून-पसीना मिश्रित ऑगन में
लगती है वह अधजल गागर

रूप की धूप में स्नेहिल रिश्ते
चले वहीं जहॉ चले हैं रस्ते
घर की देहरी डांक चली तो
लगता घर आया वैभव सागर

चाह सुगंध की चतुर सहेली
गॉवों, कस्बों की अजब पहेली
शहरी नारी की चमक की मारी
करती संघर्ष जो मिला है पाकर

नारी गाथाओं की यह अलबेली
खिली, अधखिली पर है चमेली
सृजनधर्मिता आदत है जिसकी
इनकी भी सुध ले कोई आकर.




भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
 शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.