शनिवार, 1 अप्रैल 2023

हवा का तमाशा

 लौ रही फड़फड़ा दिये का तकाजा है

हर कोई उड़ रहा हवा का तमाशा है


गलियों में रहा गूंज अबोला सल्तनत

बूटों का कदमताल लगे गाजा-बाजा है


मियाद वक़्त की भी चुकती रहती है

फरियाद छूट की मरती हुई आशा है


उभर पड़े हैं टीलों पर नाखून तेज धार

झपट कर सींच ले खुद को हताशा है


गुजर रही है नदी कलकल करती हुई

कश्तियाँ डूब रहीं लहरों ने हुंकारा है


कई जज्बात कई संवाद चल रहे हैं

चलने को कदम किस ने संवारा है।


धीरेन्द्र सिंह

02.04.2023

07.30

ऑनलाइन प्यार

 ऑनलाइन प्यार


चाहतें बूंद सी माथे पे चमक जाती हैं

जब भी वह ऑनलाइन नजर आती हैं


न जाने कौन होगा चैट हो रही होगी

एक चाह कई मंजिल डगर जाती है


अपने से ज्यादा उनकी हरक़तों की जांच

बेचैनियां लिए अंदेशे उभर जाती हैं


हमसे करती हैं चैट झूमता है मौसम

भींगो कर ऐसे अक्सर गुजर जाती है


रह-रह कर चिहुंक मोबाइल उठा लेना

कितनी बेदर्दी से एहसास कुतर जाती हैं।


धीरेन्द्र सिंह

01.04.2023

20.27

मन के बरसाने में

 मन के बरसाने में


संशय के आंगन में क्या भरमाने में

एक बार भींगो तो मन के बरसाने में


तर्क कसौटी तो लगती दायित्व चुकौती

कर्म ताप पर लगता सुलझे कई चुनौती

जीवन कैसा बीते परिवेश झपलाने में

एक बार भींगो तो मन के बरसाने में


चाह चपोत कर रखी संस्कार अलमारी में

आह तरस कर छिटके व्यवहार चिंगारी में

दो मुखा जीवन चलता राह जमाने में

एक बार भींगो तो मन के बरसाने में


नियति, भाग्य, प्रारब्ध चालित स्तब्ध हैं

कर्म, धर्म, सत्कर्म संचयी निःशब्द हैं

कितनी ऊर्जा खर्च खुद को भरमाने में

एक बार भींगो तो मन के बरसाने में


एक आत्म हो एक तथ्य एकल व्यक्तित्व

निजता निर्वाण के सकल एक कृतित्व

अपना अस्तित्व व्यस्त अपने को तरसाने में

एक बार भींगो तो मन के बरसाने में


अब भींगे जब भींगे सब मर्यादित था

आत्मचेतना अलसायी सब आयातित था

खुद को खुद में ढालो निज तराने में

एक बार भींगो तो मन के बरसाने में।


धीरेन्द्र सिंह

30.03.2023

03.43

तरल लहरिया

 तीरे-तीरे तरल लहरिया

भरने को आतुर हैं गगरिया

तट की मिट्टी सोख रही

ना जाने कब आएं सांवरिया


अकुलाया दिन पनघट ताके

सूनी-सूनी पड़ी डगरिया

लहरों में हुंकार बहुत है

आसमान की चटख चदरिया


एक रिक्तता को भर पाना

ढूंढते बीत जाए है उमरिया

भरने का अभिनय अक्सर हो

कौन उतारे अपनी चदरिया


तरल लहरिया अविरल चलती

तट की नही बदलती नजरिया

मिट्टी सोख रही है निरंतर

जीवन जीने का क्या जरिया।


धीरेन्द्र सिंह

29.03.2023

06.37

उठे बवंडर


मिश्री घुली नमी हवा की

संदली हवा उल्लास है

कौन दिशा से आया झोंका

महका कोई कयास है


पत्ते सा दिल झूम उठा

मंजरियों में विश्वास है

आकर्षण से बंध कर आए

जिसको जिसकी तलाश है


बंधन जाने हर पल चंदन 

अभिनंदन निहित उजास है

दूर से आए सागर तीरे  

तट पर बिखरी प्यास है


वेग हवा का हूँ हूँ बोले

उठे बवंडर आस है

दूर देर तक टिका वही

जिसका बवंडर खास है।


धीरेन्द्र सिंह

28.03.2023

22.33