उम्र की बदहवासी
सारी उम्र सताए खासी
मन गौरैया की तरह
रहता है फुदकता
कभी डाल पर
कभी मुंडेर पर;
मिटाती जाती है
वह पंक्तियां जिसे
लिखा था मनोयोग से
कामनाओं ने
भावनाओं ने, रचनाओं ने
उड़ जाती है गौरैया;
कब खुला है आसमान
कब खुली है धरती
कब खुला इंसान
होती हैं बातें खुलने की
मनचाहे आसमान उड़ने की
गौरैया उड़ती तो है पर
लौट आती है
अपने घोंसले में;
संभावनाओं को डोर पर
कामनाओं की बूंदे
थमी हुई
करती रहती हैं प्रतीक्षा
गौरैया की।
धीरेन्द्र सिंह
27.08.2024
06.49
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें