शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

यथार्थ हो या कि मृगमरीचिका

अनुपम,अनुभूत हो, अज्ञेय हो
रिमझिम, झिलमिल प्रभाव है
कलरव की अनुगूंज तुम हो
चन्दा सरीखा तो स्वभाव है

चंदनीय सुगंध ले शीतलता नयी
पुरवैया का तुममें बयार है
रूप हैं तुम्हारे जग में कई  
हर रूप से बरसता प्यार है

मुस्कराहटों में वादियों की छटा
अंग-अंग सप्तक का तार है
सृष्टि सुघड़ सप्तरंगी लग रही
हर जगह तुम्हारा खुमार है

इन्द्रधनुषीय भंगिमाएं हरदम लुभाए
भावनाएं पूछतीं कहाँ इकरार है
यथार्थ हो या कि मृगमरीचिका
विश्व में असुलझा यह तकरार है.




भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.