रविवार, 4 मई 2025

गमन

 साँसों पर होती उन कदमों की थिरकन

फूलों का खिलना उन नगमों की सिहरन

महकती फिजां में यह सोच हो खड़ी कहे

पुष्प है या कि है उनकी यह नई महकन


उन्हें देखकर लगा देखा ही नहीं है उन्हें

एक झोंका गुलाबी उड़ा पहनकर पैरहन

एकटक यकायक सबकुछ घटा समझ परे

सांसें महक उठी पकड़ लय की गिरहन


जब थीं जुड़ी ऑनलाइन अंदाज़ गज़ब था

एहसास भाव ताश खेलता करता रहा नमन

मेरी दीवानगी को समझ बैठी मेरी आवारगी

बाद उसके जो हुआ प्रभाव उसका है गहन


अब सांस रह गयी हैं वो कहता जमाना

बेगाना मान बैठी हैं हँस दिल करे सहन

प्यार अधिकार कब बन जाता पता नहीं

तुम भी बढ़ रही चल रहा मैं, कैसा गमन।


धीरेन्द्र सिंह

04.05.2025

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