बुधवार, 30 अप्रैल 2025

कश्मकश

 जिंदगी के कश्मकश में

चाहत किश्मिश सा स्वाद

किस्मत किसलय सा लगे

चहक किंचित घटे विवाद


पगुराते नयनों में गहि छवि

पलक नमी करे संवाद

प्रतीकात्मक भाव बन गए

परखे गहराई हर नाद


साथ पकड़कर जीवन चलता

हाँथ-हाँथ रचे नाथ

शाख-शाख पर कूदाफांदी

माथ-माथ नई बात


कितनी उलझन झनक रही

सुलझन गति भी निर्बाध

उतनी विलगन बढ़ती जाए

सुलगन में गल रहे मांद।


धीरेन्द्र सिंह

30.04.2025

22.53



मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

तथ्य

 तथ्य है तो तत्व है

तत्व में है तथ्य शंकित

कथ्य है घनत्व है

घनत्व में कथ्य किंचित


समाज है तो शक्ति है

शक्ति में समाज वंचित

मानव हैं मानवता है

मानवता होती है सिंचित


पल्लवन है तो बीज है

बीज संकर किस्म रंचित

बागीचा है तो बागवान

बागवान हो सके समंजित


अग्रता है तो व्यग्रता है

व्यग्रता में लक्ष्य भंजित

समग्रता है तो पूर्णता है

पूर्णता होती है मंचित।


धीरेन्द्र सिंह

29.04.2025

14.49



सोमवार, 28 अप्रैल 2025

क्यों है

 समझ ले तुमको कोई 

यह जरूरी क्यों है

लोग देतें रहें सम्मान

यह मजबूरी क्यों है


हृदय संवेदनाएं करें बातें

बातों की जी हजूरी क्यों है

खुद को ढाल लिया खुद में

कहे कोई मगरूरी क्यों है


हर जगह है अकेलापन

भीड़ जरूरी क्यों है

सुगंध तुमसा न मिले

खुश्बू अन्य निगोड़ी क्यों है


सूर्य सा तपकर भी

आग तिजोरी क्यों है

भावनाओं को समझ ना सकें

शब्द मंजूरी क्यों है।


धीरेन्द्र सिंह

28.04.2025

19.48



रविवार, 27 अप्रैल 2025

कविता

 कविता प्रायः

ढूंढ ही लेती है

धुंध से

वह तस्वीर

जो

तुम्हारी साँसों से

होती है निर्मित

और जिसे

पढ़ पाना अन्य के लिए

एक

दुरूह कार्य है,


कल्पनाएं

धुंध से लिपट

कर लेती है

‘ब्लेंड’ खुद को

एक

‘इंडियन मेड स्कॉच’

,की तरह

और

दौड़ पड़ती है

धुंध संग

पाने तुम्हारी तरंग,


बहुत आसान नहीं होता है

तुम तक पहुंचना

या

तुम्हें छू पाना

तुम

जंगल के अनचीन्हे

फूल की तरह

पुष्पित, सुगंधित

और मैं

धुंध से राह 

निर्मित करता

एक

अतिरंगी सोच।


धीरेन्द्र सिंह

27.04.2025

21.24



रहस्यमय

 भोर में

टर्मिनल 3 पर

लगातार अर्धसैनिक

चार-पांच के झुंड में

आते जा रहे थे

और कुछ देर में 

गेट 46-47 की

सभी कुर्सियों पर

अर्धसैनिक ही थे,


कभी नहीं देखा था

इतनी भीड़

और इन कुछ सैनिकों को

यह बातें करते हुए कि

गोली लगी थी

किसे

सुन न सका,

कुछ युवा सैनिक

धूपी चश्मा लगा

अपना वीडियो

बना रहे थे

और कुछ कर रहे थे

बातें वीडियो द्वारा

संभवतः अपनी पत्नी से,


श्रीनगर फ्लाइट की

घोषणा हुई

और

सभी अर्धसैनिक उठे

और बढ़ते गए

जहाज की ओर

आकाश 

कर रहा था स्वागत

और एक बार फिर

लगने लगा आकाश

रहस्यमय।


धीरेन्द्र सिंह

27.04.2025

06.39

टर्मिनल 3, नई दिल्ली

सोमवार, 21 अप्रैल 2025

किसान

 गेहूं की फसल खड़ी

पगडंडी अविराम है

कृषक कहां कृषकाय

खेती तो अभिमान है


फसलें भी हैं चित्रकारी

कृषि तूलिका तमाम हैं

अर्थव्यवस्था अनुरागी यह

खेत की मिट्टी धाम है


गांवों के सुंदर हैं घर

सभी सुविधाएं सकाम हैं

आंगन धूप, हवा आए

छत में जाली आम है


नहीं मोटापा नहीं बीमारी

माटी-मेहनत तान है

खुशहाली में है किसानी

अन्नदाता का सम्मान है।


धीरेन्द्र सिंह

22.04.2025

07.10




रविवार, 20 अप्रैल 2025

एक्सप्रेसवे

 तपती-जलती सड़कें

और उसपर

दौड़ता-भागता परिवहन

सड़क के दोनों ओर

कभी ढूर-ढूर तक भूरी जमीन

तो कभी जंगल और पहाड़,

गंतव्य की ओर

जाना भी कितना कठिन,

टोल प्लाजा

नीले रंगपर

सफेद अक्षरों में 

स्वागत करता और लेन संख्या

बतलाता है,

हर परिवहन

अपना शुल्क चुकाता है;


सड़कें अब

सड़क नहीं हैं

वह या तो उच्च पथ

या एक्सप्रेसवे हैं

जो नहीं गुजरती

शहरों के बीच से

बल्कि गुजर जाती हैं,

न बस्ती जाने

न शहर

परिवहन गतिशील

चारों पहर,

लंबी

बहुत लंबी सड़क

चार लेन की 

क्षितिज में

विलीन होती

प्रतीत होती है,


व्यक्ति भी

अपनी भावनाओं के वाहन पर

अपने लक्ष्य की ओर

चला जा रहा,

कुछ लोग करीब हैं

कुछ रिश्ते से बंधे है

सब लगे साथ चल रहे हैं

पर

साथ का एक भ्रम है,

सबकी राह, गति

अलग है

जीवन पथ

और एक्सप्रेसवे में

समानता है,

न जाने कब कौन

बढ़ जाए ओवरटेक करते

बस फर्क है तो

वाहन की प्रवृत्ति में,


टोल प्लाजा

आते जा रहे हैं

व्यक्ति शुल्क चुकाते

बढ़े जा रहे हैं,

हर जीव का मोल है

जीवन अनमोल है।


धीरेन्द्र सिंह

20.04.2025

12.29

मुम्बई-दिल्ली एक्सप्रेसवे।




शनिवार, 19 अप्रैल 2025

मयेकर वाड़ी

 एक लड़की

हर सुबह

ले चाय का कप

बैठती है पत्थर पर

और बातें करती हैं

पत्तियों से, नारियल वृक्ष से

पूछती हालचाल

डाल की

प्रकृति के भाल की,


एक लड़की

अपनी वाड़ी

घने वृक्ष से कर सुसज्जित

करती है आतिथ्य

अपने गेस्ट हाउस में,

व्यक्तिगत रुचि

भोजन सुरुचि

आतिथ्य श्रेष्ठ

कौन इससे ज्येष्ठ?


घने वृक्ष

सागर तट

एक लड़की संवारे

आतिथ्य पट

अतिरंगी, अविस्मरणीय

सागर के झोंको संग

घने वृक्षों के बी

मराठी, हिंदी, अंग्रेजी में

सुगंधित हवा की तरह

बहती रहती है,

कौन भूल सकता है

ऐसे स्थल को, जहां

आत्मीय सत्कार हो

अतिथि की जयकार हो

नारी गरिमा झंकार हो,


प्रकृति की फुसफुसाहट

सागर लहरों की आहट

पक्षियों की चहचआहट

तो कौन भला

न हो अलबेला

बन प्रकृति मनचला

सागर लहरों संग

न गुनगुनाए

महकती हवाएं

अविस्मरणीय आगिथ्य पाए,


मएकर वाड़ी

अलीबाग, महाराष्ट्र

संचालित

एक नारी द्वारा

यह विज्ञापन नहीं

जो एक बार जाए

चाहे जाना दोबारा।


धीरेन्द्र सिंह

14.04.2025

22.26

गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

वह

 प्रेम मेरा बंध चुका है

वक़्त से वह नुचा है

वह कविताएं पढ़ती है

भाव ना कोई जुदा है


प्रेम कलश एक होता

ब्याह संग क्या जुड़ा है

परिणय दुनियादारी है

अवसर पा व्यक्ति मुड़ा है


दायित्वों का निर्वहन हो

ना लगे कोई लुटा है

कामनाएं निज जगे तो

कौन रिश्तों में मुदा है


क्षद्म जीवन, क्या मिले

अंतर्मन तुड़ा-मुड़ा है

आज भी है याद आती

मुंह मुझसे मुड़ा है।


धीरेन्द्र सिंह

18.04.2025

06.01

बुधवार, 16 अप्रैल 2025

अमृता प्रीतम

 हिंदी साहित्य जगत में

सत्तर, अस्सी का दौर

जहां

लेखक प्रबल थे

प्रतिभाशाली थे समीक्षक 

और था दबदबा

हिंदी साहित्य लेखन का,


अमृता प्रीतम, इमरोज और

साहिर लुधियानवी,

इस तिकड़ी का चला दौर,

अमृता प्रीतम थीं

भारतीय साहित्य की

प्रथम व्यक्तिगत संपर्क (पीआर) प्रणेता,

लेखन के बलबूते पर

समीक्षकों के सहयोग और

मंच की सदुपयोगिता

कर दी चर्चित

अमृता प्रीतम की प्रणय गाथा,


अपने दौर के 

सभी प्रेमियों को

देती करारी मात

अमृता प्रीतम ने

किया स्थापित अपना साम्राज्य,

कुशल लेखन, रुचिकर अभिव्यक्ति

पी आर प्रबंधन,

लोग भूले अपनी शैली

या प्यार बना पहेली, और

सभी प्रेमियों की आदर्श

हो गईं अमृता प्रीतम,


इमरोज और साहिर लुधियानवी

प्रेम के दो चरित्र

मानो किसी उपन्यास के

दो कल्पित पात्र

और अमृता प्रीतम

अजेय प्रेम मल्लिका

जिसे अब भी देश गा रहा है,


प्रबंधन के महाविद्यालयों में

"अमृता प्रीतम प्यार प्रबंधन"

का प्रशिक्षण का हो अनुबंध,

किसी भारतीय रचनाकार का

अमृता सा ना रहा प्रबंध,

साहित्य लेखन में

कुछ ना क्लिष्ट है,

अमृता प्रीतम

इसीलिए विशिष्ट हैं।


धीरेन्द्र सिंह

14.04.2025

20.05



मंगलवार, 15 अप्रैल 2025

मूल्य

 आइए संयुक्त मिल रचना करें

साहित्य में मिल कुछ गहना धरें

आप भी बुनकर तो बेमिसाल हैं

युग्म से रच स्वर्ण अंगना भरें


दस ग्राम स्वर्ण मूल्य एक लाख

खरीदें या बेचें चंचल चाह आंख

और कितने शब्द थकते दुःख हरे

सुनहरा हो रसभरा यूं रचना करें


मूल्य सबका बढ़ रहा, यहां स्थिरता

क्या कहीं कमजोर पड़ती, निर्भरता

हाँथ मेरा बढ़ चुका संग उमंग गहें

हम भी मूल्यवान हों लयबद्ध बहें


समय सबको जोड़ता है तोड़ता है

सजग जो रहें समय भी जोड़ता है

स्वर्णमुद्रा सा सब शब्द दीप्तिभरे

चिंतन, मनन करें संग रंग सुनहरे।


धीरेन्द्र सिंह

16.04.2025

12.22

पूर्णता

 हम नयन के कोर में

देख लेते हैं

झिलमिलाता कहन

करता आलोकित गगन

शांत, सौम्य तकती रहती

आकांक्षाएं

रंगते, गढ़ते अपना चमन,


हल्की उजियारी सी आभा

और कोमल कुहासा

उड़ रहे डैने पसारे

डाल का तो हो इशारा,

लचकती है या रही झूम

कुहासा बाधित करे

कोशिशें अपने में मगन,


मौसम बदलता भाव है

कल्पना की छांव है

मन की एक लंबी सड़क

दौड़ती, मुड़ती, उबड़-खाबड़

सब नयन है देख रहा

और कुहासा

ढाँप लेता दृश्य स्पष्ट

पर रुकी ना दृष्टि

है शोधती अभिनव डाल

मन से मन का हालचाल

पूर्णता के लिए करता चयन।


धीरेन्द्र सिंह

15.04.2025

18.02



सोमवार, 14 अप्रैल 2025

प्रणय

 कौंध जाती नयन पुतली

हृदय में गिरी बिजली

क्या नई यह तान है

या प्रणय निज गान है


उभर आती चाँद सी 

शगुन की याद सी

उदित सूरज सम्मान है

या प्रणय अभिमान है


प्यार कब है बोलता

भाव हृदय बस डोलता

इश्क भोला नादान है

या प्रणय विज्ञान है


आप कहती पर अबोल

चेहरा देता भेद खोल

यह लहर मनधाम है

या प्रणय बस नाम है।


धीरेन्द्र सिंह

14.04.2025

20.58



खूंटा और व्यक्ति

 मन में हैं कितनी

स्वीकृति, अस्वीकृतियाँ और

अभिव्यक्ति भी जीवन में

खूंटों से बंधी है,

व्यक्ति

खूंटे की रस्सी जितनी

नाप सकता है दूरी

यह दुनियादारी है

नहीं मजबूरी,


मजबूर तो बंधनहीन हैं

जिन्हें नहीं मिलते

खूंटे की रस्सी से

बढ़नेवाले आगे,

कोल्हू के बैल की तरह

गतिशीलता देती है

प्रगति की अनुभूति

कौन करे विश्लेषण

इस क्षद्म नीति का?


अकुलाए, बौराए

घूमते गोल-गोल

अपनी परिधि में

स्थापित करते तादात्म्य

उभरती घास से,

टपकती बूंद से,

अपने ही कदमों के

रचित इंद्रधनुष से,

मौलिकता

गढ़ने के बजाय

मान लेना

अब का चलन है,


नही उखाड़ सकते खूंटा

यदि किए प्रयास तो

बोल उठेंगे लोग

संस्कार है

संस्कृति है

सभ्यता है

जिसका आधार है खूंटा,

खूंटे से अलग सोचना

उखड़ जाना है

खूंटे की रस्सी तक

दुनिया, जमाना है।


धीरेन्द्र सिंह

14.04.2025

16.06



रविवार, 13 अप्रैल 2025

जिज्ञासी

 प्रणय का प्रस्ताव लिए तत्पर अभिलाषी

महिला की रचना हो, दौड़ पड़ें "जिज्ञासी"


यौन कामनाओं के विक्षिप्त रुग्ण प्राणी

हर नारी पर मुग्ध झूठी मीठी ले वाणी

मार्ग एक प्रशस्त चाहें, दुनिया घनी कुहासी

महिला की रचना हो दौड़ पड़ें "जिज्ञासी"


जो भी कहना कहिए पोस्ट टिप्पणी में

मैसेंजर से संदेशा क्या रहस्य नागमणि के

तुम जैसों ने हिंदी साहित्य बनाया उबासी

महिला की रचना हो दौड़ पड़े 'जिज्ञासी"


यह बात सिर्फ संबंधित हिंदी लेखन से

धिक्कार रुग्ण तुम्हें नारी प्रति जेहन से

सुधर जाओ संस्कार सुधार ओ पिपासी

महिला की रचना हो दौड़ पड़े "जिज्ञासी"।


धीरेन्द्र सिंह

13.04.2025

21.21



गुरुवार, 10 अप्रैल 2025

यह कंस

 अनेक पत्र-पत्रिकाएं, समूह, मंच

सब के सब है हिंदी के सरपंच

इनके संचालनकर्ता क्या हिंदी कर्ता

हिंदी दिखावा हिंदी विभिन्न पंथ


कर्ता-धर्ता का अनभिज्ञ प्रयोजन

दिखावा ऐसा रचें नव हिंदी ग्रंथ

हिंदी शब्द का अकाल भाषा बेताल

प्रदर्शन प्रस्तुति जैसे अभिनव अनंत


कोई साहित्य सर्जक तो टाइमपास

रिपोर्टिंग ही करते बन साहित्यिक संत

कुछ तो बना बाजार लूट रहे हिंदी

प्रतीक, बिम्ब भूले हिंदी के यह कंस।


धीरेन्द्र सिंह

11.04.2025

02.34



बुधवार, 9 अप्रैल 2025

आखेटक

 कितना रचेगा कोई

जीवन अपना

कब तक

रहेंगी दौड़ती कामनाएं

हाथों में लिए टहनियां

और हांफती हांकती

खुद को, कि

निकल आएं फूल

सूखी टहनियों में,

जीवन

यही तो मांगता है,


कितना हंसेगा कोई

खिलखिलाकर 

होती है सीमा भी

और कैसे मूंद ले आंखें

परिवेश जा रहा बदला

हौले-हौले चुपचाप

और हो रही चर्चा

लगाएं उन्मुक्त ठहाके

अच्छा रहेगा स्वास्थ्य,

उत्सवी परिवेश में

क्षद्म यही चाहता है,


स्वयं के लिए

रच क्या दिए

तेल की तरह

भरते रहे दिए,

अब तो जाग जाओ

स्वयं की लौ जलाओ,

कामनाओं के तरकश पर

भावनाओं के तीर चलाओ,

मनुष्य मूलतः

आखेटक प्रवृत्ति का है

और मन

आखेट करना चाहता है।


धीरेन्द्र सिंह

10.04.2025

09.42


मंगलवार, 8 अप्रैल 2025

किताबें

 किताबें

वैचारिक भंवर है

पाठक मन को

गोल-गोल घुमाते

उतारते जाती हैं

खुद के भीतर

और अंततः

पाठक

किताब हो जाता है,


किताबें

होती हैं दबंग

एक आवरण की तरह

लेती हैं दबोच

और बदल देती हैं

व्यक्ति की सोच,

प्रायः प्रतिकूल

यदा-कदा अनुकूल,


किताबें

बेची जा रही हैं

आलू-प्याज की तरह,

लगे हैं

प्रकाशकों के ठेले

रंग-बिरंगे और

लग जाती हैं मंडियां

पुस्तक मेला नाम से,

बेचना कठिन हो रहा

व्यक्ति खुद को पढ़ रहा,


किताबें

नशा हैं

बौद्धिक होने की बीमारी,

हर लिखनेवाला

करे छपने की तैयारी,

प्रकाशक की कटारी,


वर्तमान में

विद्यार्थी जीवन इतर

तोड़ देती हैं किताबें

व्यक्ति की मूल सोच,

रहता भटकता

किताबों के जंगल में

तार-तार कर अपनी शोध।


धीरेन्द्र सिंह

09.04.2025

08.00



सोमवार, 7 अप्रैल 2025

चाह

 अब भी तो बरसती हैं वैसी ही बदलियां

अब भी रहे हैं भींग पर वह बात नहीं

मनोभाव अब भी चाहे वही “अठखेलियाँ”

बदन की साध कहे, अब वह चाह कहीं


बूंदों में है फुहार ना बदलती हैं व्यवहार

सोंधी महकती मिट्टी, मेघ की छांह वही

एक सिहरन बदन बोलती थी पल-पल में

मन निरंतर बोल रहा, नेह की आह नहीं


न बदला मौसम न बदली पनपती युक्तियां

फिर क्या है बदला, किसी को ज्ञात नहीं

चाह की जेठ में तड़पती लगी हृदय धरा

मेघ लगे रहे रिझा, बूंदों की सौगात नहीं।


धीरेन्द्र सिंह

07.04.2025

19.48



शनिवार, 5 अप्रैल 2025

काव्य

 अधिकांश, काव्य शब्दों में समझते हैं

काव्यांश भावनाओं के यूं झुलसते हैं


लगता है प्रतीक, बिम्ब धुंध हो गए

भाव काव्य के कैसे अब कुंद हो गए

शब्द को पकड़ लोग क्यों सुलगते हैं

काव्यांश भावनाओं के यूं झुलसते है 


काव्य लेखन भ्रमित या काव्य समझ

काव्य बेलन सहित या भाव हैं उलझ

शब्द-शब्द काव्य अर्थ क्यों समझते हैं

काव्यांश भावनाओं के यूं सुलगते हैं


भावनाएं भर-भर शब्द चयन होते हैं

कामनाएं, कल्पनाएं काव्य नयन होते हैं

काव्य को संपूर्णता से न सुलझते हैं

काव्यांश भावनाओं के यूं सुलगते हैं।


धीरेन्द्र सिंह

05.04.2025

23.38

पुणे।

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

हिंदी समूह

 हिंदी समूह से जुड़ना

मेरा भाषा कर्तव्य है

तू बता समूह सफल

साहित्य क्या महत्व है?


कितने समूह छोड़ दिया

जो कहते भव्य हैं

कुछ ने मुझे निकाला

सोच बेबाक तथ्य है


सदस्य संख्या की भूख

साहित्य बुझा घनत्व है

बेतरतीब बढ़ रहा लेखन

रचना यही तत्व है


कुछ आते समय काटने

समूह टाइमपास भव्य है

कोई नहीं सचेतक वहां

कहते समूह सभ्य है।


धीरेन्द्र सिंह

08.16

05.04.2025

चैत्र नवरात्रि

 चैत्र नवरात्रि

जुड़े धर्मयात्री

कर्म आराधना

दुर्गा सर्वदात्री


व्रत है साध्य

लक्ष्य जगदात्री

आदिशक्ति माँ

सिद्ध हो नवरात्रि


पीड़ाएं वहन

क्रीड़ाएं दात्री

पीड़ा का बोझ

मैं जगयात्री


शौर्य दे शक्ति

तौर सर्वधात्री

हृदय लौ लपक

शुभ नवरात्रि🙏


धीरेन्द्र सिंह

04.04.2025

20.14



मॉडरेशन

 साहित्य और संस्कृति का हो निज आचमन

व्यक्ति वही करे रचनाओं का नित मॉडरेशन


समूह का आधार होगा, चयन मॉडरेटर का

समूह संस्थापक भी हैं, एडमिन साकार सा

साहित्य मर्म की संवेदनाओं का हो गमन

व्यक्ति वही करे रचनाओं का नित मॉडरेशन


हल्के-फुल्के मजाक दो-चार पंक्ति काव्य

ऐसे समूह में मॉडरेशन चुनौती न संभाव्य

विभिन्न हिंदी विधा हो तो चुनौतियां सघन

व्यक्ति वही करे रचनाओं का नित मॉडरेशन


आवश्यक नहीं हिंदी पीएचडी हो हिंदी ज्ञाता

कई पुस्तकें हों प्रकाशित हिंदी की जिज्ञासा

मगन, मुग्ध, मौलिक हिंदी के प्रति नयन

व्यक्ति वही करे रचनाओं का नित मॉडरेशन।


धीरेन्द्र सिंह

04.04.2025

15.45

मंगलवार, 1 अप्रैल 2025

नग्नता

 वस्त्र की दगाबाजी

कहां से सीखा मानव

कब कहा प्रकृति ने

ढंक लो तन कपड़ों से,

सामाजिकता और सभ्यता का दर्जी

सिले जा रहा कपड़े

मानवता उतनी ही गति से

होती जा रही नग्न,

क्या मिला 

ढंककर तन,


धरती, व्योम पहाड़, जंगल

जल, अग्नि, वायु सब हैं नग्न,

जंगल में कैसे रह लेते हैं

पशु, पक्षी वस्त्रहीन

नहीं बहती जंगल में

कामुकता और अश्लीलता की बयार,

क्या मनुष्य ने

चयन कर वस्त्र

किया निर्मित हथियार ?


नग्न जीना नहीं है

असभ्यता या कामुकता

बल्कि यह 

स्वयं का परिचय,

स्वयं पर विश्वास,

शौर्य की सांस, 

शालीनता का उजास है,

नग्न कर देना

आज भी सशक्त हथियार है

मानवता

वस्त्र में गिरफ्तार है।


धीरेन्द्र सिंह

01.04.2025

16.49