गुरुवार, 7 नवंबर 2024

आहट

 किसी गुनगुनाहट की आहट मिले

वही ताल धमनियां नचाने लगे

संयम की टूटन की आवाज़ें हों

यूं लगे रोम सब चहचहाने लगे


न जाने यह कैसे उठी भावनाएं

अकेले ही क्यों हकलाने लगे

कभी लगे शोषित तो कभी शोषक

खुद से खुद को क्या जतलाने लगे


यादें और कल्पनाएं मंसूबा झुलाएं

अधखुले चाह गहन धाने लगे

यह यादों का इतना तूफानी समंदर

किनारे पर मन ज्योति जगाने लगे


कहां बस गयी कोने मस्तिष्क में

मन वर्चस्वता ध्वज फहराने लगे

ना मिले ना बोले पर यह अपनापन

बंदगी को जिंदगी में उलझाने लगे।


धीरेन्द्र सिंह

08.11.2024

08.47




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