ढलान पर
गेंद की तरह लुढ़कता
भी तो व्यक्तित्व है,
असहाय, असक्त सा
जिसकी शून्य पड़ी हैं
शक्तियां
बांधे घर की उक्तियाँ
कराती झगड़ा
अपशब्द तगड़ा
लांछन, दोषारोपण
बोलता मस्तिष्क लड़खड़ा,
कहां लिखी जाती हैं
चहारदीवारी की लड़ाईयां,
ढंक दिया जाता है सब
कजरौटा सा
कालिख भरा,
खड़ी दिखती दीवारें
अंदर टूटन भरभरा,
नहीं लिखी जाती
कविता में यह बातें
रसहीन जो होती हैं,
दिखलाता जिसे चैनल
मूक तनाव, झगड़े, घृणा
दर्पलीन जो होती है,
खोखली हंसी और
कृत्रिम मुस्कान
क्षद्म औपचारिकताएं
जीवन महान।
धीरेन्द्र सिंह
30.12.2024
17.520
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