शनिवार, 14 दिसंबर 2024

मर-मर जीने में

 कोई जब याद करता है बरसते भाव सीने में

वही वादी लगे खाईं है लरजते मर-मर जीने में


हर घड़ी प्यार की पुचकार भरी जग आशाएं

क्या पड़ी किसपर कोई भला क्यों बतलाए

सजाता रचकर ऐसे विश्वास पहने नगीने में

वही वादी लगे खाईं है लरजते मर-मर जीने में


कहां से बांधकर लाती हवाएं यादों के बस्ते

कहां से भाव आ जाते कसक यादों से सजते

यह यादें भी हैं कैसे जानती बरसना सीने में

वही वादी लगे खाईं है लरजते मर-मर जीने में


कोई छूटकर भी छूटता नहीं लगे छूट गया

नयन भाव फूटकर भी फूटता नहीं बने नया

एक अंकुर निर्जला गुल खिलाता सुगंध सीने में

वही वादी लगे खाईं है लरजते मर-मर जीने में।


धीरेन्द्र सिंह

15.12.2024

13.06



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